उपदेश - रत्न कोष | Upadesh Ratn Kosh

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Upadesh Ratn Kosh  by श्री जिनेश्वर - Shri Jineshwar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उप केश-रत्स-कतेब |. ७ मिल सकेगा, झर अुगलोी लाने, वाले, तथा बिन्दा करने वाला को, ऊपर कहे दुप: सद्धुष्य की लिन्दा करने का बदहासा भी न मिल सकेगा । कलिकाल का सी कुछ नहीं चल सकता ॥! नियमिज्जइ नियजीहा अधि आरिअिं नेव किज्जएकज्ज नकुलकम्मा अ लुप्पड़े कुविसो कि कुणइ कलिकालो ५४ नियमनीया निनजीड़ा अधिचारितं 'नेव करणीयकृत्यं | न कुल क्रमश्च लापनोीय: कुपितः कि करोति कलि कालः ॥ भअथ--झपनी जीम को कश में रखिये. कभी भी. बिना स्गोचे समभे काम न करिये, झौर कल्ाचार को न लोपिये तो सालात्‌ू कोपायमान कत्ति भी कया ऋर खसक्ता है? कुछ नहीं | वित्रेचन--जो असत्य निन्दारूप,क्श वद्ध के. तथा निर- थक्क, चचन न बोलते, सितभाषी होने की हादिक इच्छा जगें, द्रव्य, च्तेत्र. काल, भाव, सम्बन्धी चिचार किये बिना कोई कत्य न करने की. ध्यान में रहे, शरीर बिमा किसी यड़े परो कार के कलाचार न लोपने की सावधानी रहे तो कितनी भी कड़ी शत्रता वाला बरी दुप्ख न दे सके, क्योंकि जो निश्यय श्रौर व्यवहार से पत्िन्न हैं उन पुरूषों के शत्र भी मित्र बन ज्ञात हे । सज्जन का राह | सम्स न उलबिज्जइ कस्स वि आल न दिज्जह कऋयावि को वि न उकको सिज्जह सज्जण सग्गों इसो दुर्गो।।




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