रसज्ञ - रंजन | Rasagya - Ranjan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ई--कथि-कसव्य श्श काव्य सर्वसाधारण की सममक के बाहर होता है वदद बहुत कम लोकमान्य होता है । कवियों को इसका सदैव ध्यान रखना वादिए। कविता लिखने में व्याकरण के नियमों की अवहेलना न करनी चाहिए । शुद्ध भाषा का जितना मान द्ोता है झशुद्ध का उतना नहीं होता । व्याकरण का विचार न करना कवि की तद्विषयक अज्ञानता का सूचक है । कोई-कोई कवि व्याकरण के नियमों की ोर दृक्पात तक नहीं करते । यह. बड़े खेद औौर लडज्जा की बात हे । न्रजभाषा की कविता में कविजन मनमानी निरंकुशता दिखलाते हैं । यह उचित नहीं । जद्दां तक सम्भव हो शब्दों के मूल-रूप न विगाड़ना चाह्ठिये । मुद्दाविरे का भी विचार रखना चाहिए । बे-मुह्दाविरा-भांषा अच्छी नंददीं लगती । क्रोध क्षमा कीजिए इत्यादि वाक्य कान को अतिशय पीड़ा पहुँचाते हैं। सुद्दाविश दी भाषा का प्रास है उसे जिसने नहीं जाना उसने कुछ नहीं जाना । उसकी भाषा -कदापि आदरणीय नहीं हो सकती । विषय के अनुकूल शब्द-स्थापना करनी चाहिए । कविता एक श्रपूव रसायन है । उसके रस की सिद्धि के लिए बड़ी साव- धानी घड़ी मनोयोधिता शरीर बड़ी चठुराई ्ावश्यक होती है । रसायन सिद्ध करने मे आँच के न्यूनाधिक होने से जेसे रस बिगड़ जाता है वैसे द्वी यथोचित शब्दों का उपयोग न करने से काव्य रूपी रस भी बिगड़ जाता है। कि नी-कि सी स्थल्ल-विशेष पर रूचा- चार वाले शब्द अच्छे लगते हैं परन्तु श्रौर सर्वत्र ललित मर मधुर शब्दों ही का प्रयोग करना उचित है । शब्द चुनने में अ्रक्तर मैत्री का विशेष विचार रखना चाहिए । अच्छे झ्थ का य्योतक न होकर भी कोई-कोई पद्य केवल अपनी मधघुरता ही से पढ़ने वालों के झन्तःकररण को द्रवीभूत कर देता है । टुटत अढ्डट बे3े तर जाई जत्यादि वाक्य लिखना हिन्दी की कविता क्रो कलड्रित करना है ।




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