कुन्द्कुंदाचार्य के ३ रत्न | Kundkundachary Ke 3 Ratn

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Kundkundachary Ke 3 Ratn by पंडित लक्ष्मी चंद्रजी जैन - Pt. Lakshmi Chandraji Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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«« उपोद्धात दे वे इं० स० पूर्व तीसरी शताब्दीमें हुए हैं।--सगर कई कारणोंसे 'यद्द निर्णय स्वीकार नहीं किया सकता । जैंन दृंतकथा या परम्परा में कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता, जिससे कुन्दकुन्दाचायेको भद्रवाहुका समकालीन गिना जा सके । इसके विपरीत, जो परम्पराएँ उपलब्ध हैं, वे उक्त निणुयका विरोध करती हैं । ऐसी स्थितिमें कुन्दूकुत्दाचायेको भद्बाहुका परस्परा-शिष्य गिनना चाहिए। साहित्यमें वहुत बार ऐसा ही होता है । उदाहरणा्थ-- उपमिति-भवप्रपड्यकथा' के लेखक सिद्धर्षि ( इ० स० ९०६ ) हरिभद्रको अपना 'धर्सप्रबोधकर शुरु कहते हैं। परन्तु छन्य विश्वसनीय प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है कि वे समकालीन नददीं थे; क्योंकि हरिभद्र तो झाठवीं शताब्दी के श्रधबीचके बादके समयमें दो चुके हैं। कुन्दछन्दाचाये अपने शापकों भद्वाहुके शिष्यके रूपमें परिचित कराते हैं, इसका एक कारण यह हो सकता है कि भडबाहु ही दक्षिण जानेवाले संघके झगुवा श्र नेता थे। दक्षिणका संघ, उनकी स्त्युके पश्चात्‌ यदि माने कि दें समस्त घार्मिक ज्ञान उन्दींके द्वारा प्राप्त हुआ है तो इसमें कोई 'छाश्चर्यकी बात नहीं है । झतएव यह संभव दे कि कुन्दढुन्दाचाय भी यह 'मानते हों कि हमें समस्त ज्ञान भद्वाहुके द्वारा ही श्राप्त हुआ है ' श्नौर इसी कारण वे अपनेकों भद्रबाहुका शिष्य मकट करते हों । कालनिणुय पद्ावलियोंके आधारपर जैनोंमें परम्परागत मान्यता यह हे कि इन्दुहन्दाचार्य, दे स०-.पू्व॑ श्ली सदीमें तेंतीस बषंकी ष्




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