शंकर सर्वस्व | Shankar Sarvasya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ शारदा पीठाधीश्वर जगदूरुरु श्री शझुराचाय सहाराज महाकवि श्र की कविता के बड़े प्रेमी थे । छापने शझ्भुरजी को झपनी पीठ की झोर से कवि-शिरोमणि की उपाधि प्रदान की थी । सुप्रसिद्ध कलाकोविद्‌ झोर विद्वान श्रीरायक्ृष्णदासजी ने हमें बताया कि स्वर्गीय श्रीजयशड्छूर प्रसाद कविवर शडझुर के छन्द सम्बन्धी पांडित्य के बड़े प्रशंसक छोर उनकी शेली के झलुयायी थे । कविवर निरालाजी श्र दिनकरजी ने शक्कूरजी के प्रति कई वार श्रद्धावज लियाँ छार्पित की हैं । अन्य सड़ाकवियं ने भी उन्हें सराहा है । महाकवि श्र का हृदय देशभक्ति से भरपूर था । उन्होंने इस विषय पर जो कविताएँ लिखी हैं उनसे यह बात स्पष्ट जानी जा संकती है । वे सम्प्रदायवाद के कट्टर विरोधी थे। उनकी राय में बेदिक धर्म ही मानव-धम था. शोर उसीसे प्ब का कल्याण सम्भव था। २६ वष की थ्ायु में शझ्टरजी ने निम्न- लिखित सकेया लिखा था -- बर बैदिक बोध बिलाय गयो छुल के बल की छुबि छूट परी पुरुखा एथ -. साहस मेल. मिटे मत-पन्थन के मिस फूट परी अधिकार भयो परदेसिंन को धन-घाम-धरा पर लूट परी कवि शक्कर श्रारत भारत पै भय-भूरिं श्रचानक टूट परी उपयुक्त सवैया के शब्द-शब्द में कवि शंकर की देश के लिये तड़प भरी हुई है । उनका झन्तरात्मा छल-छदूम श्र मत-पन्थ- जन्य झनेकता झौर परदेशियों द्वारा घन घाम एवमं धरा को लुटते देखकर चीख उठता है । पाठक देखें कि छब्बीस वर्ष की झायु में नवयुवक शक्कर को भारतीय पराधीनता कितनी झसझ श्र बपमामजनक प्रतीत हो रही है। इन्हों दिनों शंकरजी ने कहा मेरा सब करते हैं शीषक एक हास्यरस की कविता लिखी थी इसमें देशोन्नति सम्बन्धी झन्य अनेक बातों के साथ यह भी था-- भोजन भेज विदेसन को घर - भरें कबाड़ मँगाय




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