अध्यात्मिक ज्ञान सागर | Adhyatmik Gyan Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११. वाला राम सत गुरु के सरणे नोरंग निरभय रूप को ध्यालिरे । देर | सेवा करले प्राणी सेवा करंलेरे । सेवा चिज दड़ी संस्सार में ज्यांसे नित श्रमरत पिलेरे 1 सेवा से मेवा मिले जावे मेवां में रस अपनारे ॥। रस में इक श्रमरत धारा ज्यांमें ज्ञान गंग से नहालेरे । ज्ञान गंग में नहाकर पारस. रूप श्रपनालर ॥ पारस नाम येक ही रूपा दुसरा रूप मिटालेर । बालां राम सत गुरु की नोरंग सेवा करेंलेंरे ॥ रेहे पल पल में सुरत निरजले पिया की जद पावे पियो पियारोये । पलकां का कर पालणा सत नाम को देऊ .हिलोरोये ॥। प्रानन्द में परमानन्द दरसावे प्ररमानन्द सोही पितम प्रियारोये । पिग्राकी ्रटरियाँ में सुगरा नर पहुंचे वांको भाग बड़ों ही. पियारोये ।। श्रनेक जनमों से वह दुःख पायों सतत गुरु पल में झ्रान उभारोयें । वाला राम सत गुरु के नोरंगे -न . श्रप्रनायोये ॥। दे |. सबकी तान मिलाता श्राप भ्रपनीही तान में निरद्यारारे । कम करे कर्ता नहीं होवे रहता नित स्यारारे ॥। फर्म करें जद प्रकृति वन जावे खेले खेल श्रपारारे । खेलको रचकर वन जाता बहु रूप श्रपारारे ॥| हर रुप में रूप निराला कली कली में रंग स्यायारे । सच रंगों में रम रहता श्राप सत रंग में रूप श्रपारारे ।। सत रंग का रंग लगाले फिर हो जावे भव पारारे | ये हो रंग हे सब रंगों का सिरताज ज्यांने सतगुरू पावन हर हारारे ॥। सतयुरू सन को पाकर पावन हारा वन जावे डेखले रंग ं न्यारारे । सतयुरू का. नोरंग नित स्योरार ॥| देश




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