मीमांशा दर्शन | Meemansa Darshan

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.7 MB
कुल पष्ठ :
309
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १४६ )
ऋग्वेद की पहली पक्ति में ही यनज्न का उल्लेख किया गया है
और छसे मनुष्यों के लोक-परलोफ की सफलता वा सर्वोपरि साधन बत-
लाया गया ई-ु
अभ्निमीले पुरोहित यज्ञस्प देदमृत्विजमू होतार रत्नघाततम् ।
हम उन अर्निदेव की स्तुति करते हैं जो पुरोहित, ऋत्विज,
यज्ञ के देवता तथा देवताओं के भाह्वाता है । वे रत्नो की खान हैं थौर
हमें भी श्रेष्ठ रत्न प्रदान करें ।”
इस मन्त्र का तात्पर्य यद्दी है कि यज्ञ मनुप्य फा सब प्रधान
धर्म कृत्य है और उसीखे उसका जीवन सार्थक हो सकता है । जीवन
का उत्यान देव शक्तियों वी कृपा से हो हो सकता है और उनमे सम्बन्ध
स्थापित्त करने का मुख्य सावन यज्ञ ही है । सासारिक परिश्यितति मे
रह कर जीवन निर्वाह करने वाले हिन्दू का देवारावन मुख्य कर्तव्य है
भर उसका माध्यम यज्ञ हूं। गीता मे भी यही कहां है कि यज्ञ के
द्वारा देवता तुम से सन्तुष्ट रहेगे मौर तुम्हारी उन्नति गौर कल्याण में
सहयोग देंगे । यदि ऐसा न किया जायगा तो देव क्षीण हो
जामेंगी भर उनकी सहायता न मिलने पर तुम भी निर्वल भीर निस्तेज
दो जाओगे !
इतना ही नहीं “भगवद्गीता' के विविघ बचनों का सामझ्जस्प
करने और उनमे निहित आदय पर विचार करने से यह भी प्रकट होता
हैं कि यद्यपि अग्निहोत्र मूलझ यज्ञ वेदानुकूल थे, पर जज से -जँसे ज्ञान-पार्म
का, ब्रह्म विद्या का प्रचार होता गया और उच्चकोटि के विद्वान उप-
निषदो की शिक्षा को कल्याणकारी समझकर स्वीकार करते गये, वैसे-
वैसे हो कमेकाण्डमूलक यज्ञो की स्थिति गौण होती चली गई । तव “यज्ञ”
का समर्थ केवल “दंपूर्ण मास' “ज्योतिष्टोम' “*अदवमेघ' आदि दो-चार तरह
के छूमघाम वाले क्रियाकाण्ड युक्त सामूहिक यज्ञ ही न रह गये, वरद
मानव-जीवन के सभी महत्वपूर्ण कर्तव्यों को 'यज्ञ' के नाम से ही ग्रहण
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