धन्वन्तरी माधव निदानक | Dhanvantri Madhav Nidanak
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
57.34 MB
कुल पष्ठ :
712
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोपीकृष्ण जोशी - Gopikrishna Joshi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ 2५ | कमािितििलशतििशलिविनिनिििि 2.22
शुद्ध आयुर्वेद के कट्टर से कट्टर समयकों के लिए
भी इस युग में पाश्धात्य पद्धति से निदान करना
आवश्यक हो गया दे । श्ञाज न्युमोनिया का निदान
कोई भी देय ज्वर, कास या श्वास के नाम से नहीं
करता, यद्दी हाल शन्य रोगो का भी है। किन्तु
पाश्चात्य पद्धति के कुछ दो रोगो का ज्ञान होने के
कारण श्नेर श्रवसरों पर वैद्य उपदास के पात्र
बनते देखे जाते है। पाश्चात्य पद्धति से एक रोग
का निदान करने वाले के लिए यह 'झावश्यक दो
जाता है कि वदद उसी पद्धति से अन्य सभी रोगों
का निदान कर सके । श्राजकल यदद दशा चल
रददी दै कि यदि ढाक्टर किसी रोगी को टी. वी.
बतला देता है तो कैय भी उसे यदमा बतलाने
लगते हैं। कभो कभी मत भेद उपस्थित द्ोने पर भी
वैयों को ढाक्ट्ों को दां में हां दी मिलानी पढ़ती
दै क्योंकि तर्क करने योग्य जान का '्रभाव रदता
है। इसलिए वैद्यों को भी पाश्चात्य निदान का
ज्ञान प्राप्त करना झावश्यक दे। जो लोग उक्त
दोनों कारणों को मान्यता नहीं देते वे यह तो
ब्वश्य मानेंगे कि जिस बलवान शत्रु से हमारा
संघर्ष चल रहा दै उसके दांव-पेंचों का ज्ञान तो हमें
अवश्य दो होना चाहिए ताकि दम उससे युक्ति-
पूर्वक लड़कर जीत सकें । पाश्चास्य पद्धति को
व्रालोचना के लिए भी उसका अध्ययन 'मावश्यक
है। यदि बिना जाने आलोचना की जाती देती
अक्सर बह आलोचक के हो अज्ञान का श्रदर्शन
करती दै। इन्हीं सब बातों को व्यान में रखते डुये
वैद्यों का ज्ञान बढ़ाने के उददश्य से ही पाश्चात्य
निदान में इतने श्रधिक प्रप्ठ खच किसे गये
हैं श्र मुक्ते आशा दै कि अधिकांश वे इसे
पाकर प्रसन्न होंगे । जो लोग पाश्चात्य पद्धति से
ब्पत्यधिक चिढते है उनके लिये यह मार्ग दे दी , कि
वे उतना भाग छोड़कर शेप प्रन्थ पढ़ सकते हैं ।
प्राच्य पाश्चात्य के सम्बन्ध में प्रारस्भ से दी
भूलें चली झा रही दै । यथाग्यान उन सबका
करण बनतलाने हुए निराकरण क्या गया दे।
पाश्चात्य निदान को शुद्ध दिन्दी में देने का
4 यत्न किया गया दै श्रौर नामों का भी कुछ अनुवाद
किया गया दै । अधिकतर दूसरे विद्वानों द्वारा दिये
गये नामों का ही प्रयोग किया गया है किन्तु बहुत
से स्थानों पर नए नामों की भी रचना की गयी
है । नये शब्दों के अंग्रेजी पर्याय सर्वत्र दिये गये
हैं। सारो टीका एवं पाश्चास्य मत श्रत्यन्त सक्तिपत
हैं । यदि विस्तार से लिया जाता तो पूरे विशेषांक
में केवल उ्वर प्रकरण के भी लिए स्थान कम पढ़ता ।
चित्रों का निर्माण मैंने अपनी देख-रेख में
कराया है । इससे थित्र तो अन्य विशेषांकों की
अपेन्ना काफी अच्छे बन गये हैं किन्तु इसमें व्यय
अत्यधिक हुआ दे । ठछुपाई के संबन्ध में काफो
सतर्कता रखने पर भी 'झनेकों गलतियां हुई हैं ।
एक स्थान पर “बड़े विद्वानों” के स्थान पर “लम्बे
विद्वानों! और एक स्थान पर “उवरयुक्त' के स्थान पर
“्वरमुक्त' वक छप गया दे । इससे अधिक भयंकर
गलतियां और क्या दोंगी । मैंने प्रधान सम्पादक जी
का ध्यान इस शोर 'झतेक वार 'भाकर्षित किया और
उन्होंने काफी ध्यान भी दिया किन्तु कोई विशेष
फल नहीं निकला । इसका कारण स्पष्ट है। धन्व-
न्तरि की श्राय बहुत कम दे इसलिए कम श्ाय वाले
कर्मचारी रखे जाते हैं । र्वभावतः उनकी योग्यता
कम दी रद्दा करती दै इसलिये इस प्रकार की गल-
तियां होना '्वश्यम्भावी है । यह दोष मूल्य बढ़ाकर
दी दूर किया जा सकता है क्रिम्तु यद विषय मेरे
विचार फरने का नहीं दे क्योकि इसका सीधा
सम्बन्ध प्राइकों श्र प्रधान संपादक के बौच है ।
विशेषांक के संबन्ध में मेरा जो चिरप्रतीक्षित
स्वप्न था उसे साकार करने में प्रधान संपादक श्रो.
देवीशरण जी गग ने अतिरिक्त व्यय सहन करके भी
सहयोग प्रदान किया दे । में भलीभांति जानता हूँ
कि इसमें कितना घाटा उठाना पढ़ा दे और कितना
अधिक परिश्रम करना पढ़ा हे । मेरे और 'आायुर्वेद के
प्रति उनकी इस उदारता वे दिये से हृद से झाभारी
User Reviews
No Reviews | Add Yours...