उजले पोश बदमाश | Uajale Posh Badamash

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Uajale  Posh Badamash by विगुलदास पुष्पांजलि - Viguldas Pushpanjali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ )- राजरानी--अरे वादर छापकी झछ “घर की मुर्गी दाल बराबर” आपके भाई क्या दुय, गोया जर खरीद अफ्रीका ' के इबशी गुलाम हुय जब जी चाहा गला घाट दिया ! संठजी--अजी तुम यद्द बातें जाने भी दो, क्या नामाकूल पचड़ा बीच में ले बेठी दो कि करे भी द्ोने को झाई । दमारी बला से कोई जीवे या मरें, यहां तो दर वक्त चेन की बंसी बजती है. में वो पणिडतां के बहुत कुछ रोने धोने पर पंचायत में चलो गया था । राजरानी--खर यद्द न॑ उरूर कहूँगी कि इन्सान से नफ़रव करना आपके यहां मद्दापाप लिखा है । संठ--यहद छपे हुए शासतरों में लिखा होगा, दम लोग छपे हुए शासतर द्दी नहीं मानन, क्यांकि शासतर छपवाना भी हमारे मज़ददब के ख़िलाफ़ हैं । ( मन में ) दखा ! हम लाग पदिलेही कहते थे कि शासतर न वा पर कान सुनता हू; कददत हूं साहब धरम प्रचार होगा । घरम का परचार हुआ हूं डियां तक हमारे घरके भेद जानने लगीं। राज रानी--ठा संठ जी छप हुए शाख्र तो झापकें बहुत से मन्दिरों में रखे हुय हूं । सठ जी--जिन मन्दिर में छुपे हुए शासतर पहुंच गये हैं हस उन मन्दिरों को मन्दिर दी नहीं मानते । राज रानी-झरे सादब ! क्यों इतना सुभेद मूठ बोलते हैं कल. दी तो मेन आपके लालाजां का मन्दिर से निकलते हुये देखा है । सेठ जो--चद्द दमारा बाप नददीं कोई और गधा होगा ! -




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