संस्कार विज्ञान | Sanskar Vigyan
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31.84 MB
कुल पष्ठ :
215
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)४ उच्च शिखर तक पहुंचना उपत्यका के दुर्गम मार्ग को पार करने की अपेक्षा सुगम है। वायुयान से यों ही शिखर तक पहुँच सकते है किन्तु समय ही कतिपय पढुँए पहुँचू सकते हैं । उसी प्रकार कर्मानुष्ठान के विना भी ज्ञानी भर भक्त परम लक्ष्य को प्रा कर लेते हैं किन्तु उतना सामथ्य प्राप्त करने पर ही यह साध्य होगा । ज्ञानी एवं भक्त भी स्वस्वा- घिकार के अनुसार कमं का आचरण करते ही है । कमं-सन्न्यास का अथ॑ कर्मों को छोड़ना नहीं है किन्तु कर्मों के फल का त्याग है। कर्मों के फल का त्याग करने के लिए चित्त की परिपक्वता जरूरी है। व्यावहारिक दशा मे सहसा वह साध्य नहीं। संस्कारों से संस्कृत होकर नियत कर्मों का सतत अनुष्ठान करते-करते वह अवस्था प्राप्त होगी । वहीं वेराग्य कहलाता है । असाधारण रूप से वेराग्य की आवश्यक्रता है । वाचा कहने मात्र से वह प्राप्य नहीं । ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या मात्र कहने से जगतु मिथ्या नहीं होगा । जगत् की प्रत्येक वस्तु मे वास्तविक ब्रह्मभाव होना चाहिए । भगवन्नाम के स्मरण एवं कीतंन में महापापों के निवारण की शक्ति विद्यमान है किन्तु इस शक्ति को जानकर पाप कमें करते ज़ायें और नाम कीतँन से उनको हटाते रहें यह उचित नहीं। पाप कर्मों से हटने के लिए सत्कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्त होना चाहिए। सत्कर्मों के अनुष्ठान में प्रवृत्ति के लिए स्वयं संस्कारों से संस्कृत होना पड़ेगा । सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाले परिवार भारत में अनेकानेक रहे हैं और वतंमान में भी विद्यमान है। उनमे बिरला-परिवार प्रथम गणनीय है। मेरा उस परिवार से परम्परया एवं साक्षातु सम्बन्ध बना हुआ है। सन् १९२४ से १९३३ तक मैं काशी-हिन्दू- विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए दो-तीन वष॑ तक १५ रुपये की बिरला छात्रवृत्ति पाता रहा । उन दिनों बिरला परिवार के आदिं पुरुष श्रद्धेय बलदेवदास जी बिरला अपने बगीचे में कभी अध्यापकों को बुला कर सत्कार करते थे तो कभो छात्रों को बुला कर भाम खिलाना कम्बल बॉटना विद्यार्थियों से प्रद्नोत्तर सुनना आदि विनोद-गोष्ठी में समय व्यतीत करते थे । हिन्दू विश्वविद्यालय में मैं सन् १९३४ से अध्यापन करने लगा । प्राय प्रतिवर्ष श्रीमानु बिरला जी अपनी कोठी में पण्डितों की सभा बुलाते थे उसमें मैं भी सम्मिलित होता था । एक वष॑ वष॑ स्मरण नहीं अपने दो पौत्रों का उपनयन-संस्कार करवाये जिसमें पूज्य महामना मालवीय जी महाराज के द्वारा गायत्री का उपदेश दिया गया था । उस अवसर पर पण्डितों की बहुत बड़ी सभा हुई थी मैं भी सम्मिछित रहा । अपने परिवार मे बच्चों के उपनयन आदि संस्कारों को कराने की परम्परा बिरला जी ने कायम रखी । पूज्य मालवीय महाराज जी के आदेशों से मै जयपुर महाराज संस्कृत कालेज केः अध्यक्ष पद. पर सात-आठ वषं कार्य कर कलकत्ता विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा बुल़ाये जाने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय में कार्यरत था । उन दिनों पुनः बिरला-परिवार से सम्पर्क हुआ । यह सम्पक॑ विचित्र रूप से हुआ। सुप्रीम कोर्ट में मेरे भाई फूआ के पुत्र एनु० चन्द्रशेखर अय्यर जज थे । वे सेवानिवृत्त होने के अनन्तर किसी राजकीय कायें में संलग्न थे । अपने कार्यविदोष से कलकत्ता आये और बिरला पार्क में ठहरे थे ।
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