कल्याण [वर्ष 55] [संख्या 1] [1981] | Kalyan [Year 55] [No. 1] [1981]

Kalyan [Year 55] [No. 1] [1981] by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रख प्छ. सै जा . भगवत्स्तुति | तमीश्रराणां परम मह्देश्वरं त॑ देववानां परम॑ च. दबतम्‌ । भर पति -.पतीनां -परम॑ परम्तादू विदाम देव भुवनेशमीष्थम्‌ ॥। डु दम उन फ्रकाशाखर्प स्तुति करने योग्य अखिलेकपति मगबानकों जान गये हैं डु इुश्वरोके भी परम महददेशर हैं जो देवताओंके मी फरमारान्य देव हैं जो खामियोंकि भी खामी हूं और जो मददानसे भी भनति महान हैं । ः न तस्प कार्य करण च पिद्यते न सत्समश्रास्पधिक दृदयते | रु परास्य शक्तिर्षिविपेष श्रूयते स्वाभाषिकी श्ञानयलक्रिया च । उन परमेश्ररका न तो कोई शरीर है न इच्धियाँ दी हैं । न तो कोई उनके समान हज जे कि दे न बवकर ही है. । उनकी परमाशक्ति विविध प्रकारकी छुनी जाती हैं क्योंकि ये सामात्रिफ अर्थात्‌ अनादिसिंद शक्तियुक्त हैं। उन परमेश्वरके श्ञान और श्रछ्के अनुसार निया होती है । नतस्थ कश्नितू पतिरिस्ति ठोके न चेशिता नेवर च तस्प लिजम्‌ । स कारण करणाधिपाधिपो न चास्प कश्रिजनिता न चाधिए ॥| उस परमेसरका इस संसारमें न तो कोई पति है न नियामक है. और न कोई करण अपवा अनुमापक दी है । वद खर्य दी स्का फारण है घदद इन्दियेकि अधिष्ठालू देवताओंका मी अपधिष्टाता है उसका न तो कोई उत्पादक है और न स्ामी दी है | यस्तन्तुनाभ इव... तन्तुभि . प्रधानज . खभवतः । देव एक. खमाइणोद्‌ स.. नो... दधाइाप्ययम्‌ || जिस प्रकार मकड़ी अपने ही शरीरेंसे निकले हुए तन्तुओंसे अपने आपको बेष्र्स हि पर खेती हैं उसी प्रकार इन अदतीय फमात्मानि अपनी ही प्रकृतिसे इस संछियो उत्फन- कर उसके द्वारा अपनेको आइत यार लिया | रह परमेश्वर दमारा उस परबप्के साय रु एुकीमात्र प्रदान करें । यो त्रह्माणं विदधाति पुर यो में वेदांध प्रदिणोति तससें । त्८द.. देवमात्मपुद्धि्रफारों.. मुमुझु झरणमहँ प्रपद्ये ॥ ् जो पढले अहाफी रचना यरते हैं और हिंर जो उन्द्वं मेदका ज्ञान घराते हैं में उन रथ सप्रकाश पमझयी दारण ग्रहण यरता हूँ । कै ( स्ेाधकरपनिफदू 8 | ७ १०५ 1८ ) जपशकंपििशाण नि दया. सदर डर उजठर्थद




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