प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला, राजनीति, धर्म तथा दर्शन | Prachin Bharatiya Sanskriti, Kala, Rajniti, Dharm Tatha Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34.01 MB
कुल पष्ठ :
585
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ईश्वरी प्रसाद - Ishwari Prasad
नाम - ईश्वरी प्रसाद
जन्म - 29.12.1938,
गाँव - टेरो पाकलमेड़ी, बेड़ो, राँची
परिजन - माता-फगुनी देवी, पिता- दुखी महतो, पत्नी- दुलारी देवी
शिक्षा - मैट्रिक; बालकृष्णा उच्च विद्यालय, राँची, 1952
आई० ए०; संत जेवियर कालेज, रॉची, 1954-1955
बी० ए०; संत कोलम्बस कालेज, हजारीबाग, 1956-1957
व्यवसाय - शिक्षक; बेड़ो उच्च विद्यालय, 1958-1959, सिनी उच्च विद्यालय, 1960
पशुपालन विभाग, चाईबासा, 1961, राँची, 1962-1963 मई 1963 से एच० ई० सी०, 1992 में सहायक प्रबंधक के पद से सेवानिवृत
विशेष योगदान --
राजनीतिक -
• एच० ई० सी० ट्रेड यूनियन में सीटू और एटक का महासचिव
• अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार, चेकोस्लोवाकिया में ट्रेड
शैलेन्द्र शर्मा - Shailendra Sharma
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संस्कृति के मूल तत्व 2 ५ (६) संस्कृति में सानव फ्री भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का ससस्वय होता है--यद्यपि मनुष्य की शारीरिक स्थिति भौतिक जगत से सम्बन्धित हैं तथापि उसके मस्तिष्क का सम्बन्ध भाध्यात्मिक जगत से होता हे । संस्कृति द्वारा मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक भावश्यकताओ की पृत्ति होती है । ी (७) संस्कृति द्वारा अनेकता में एकता की स्थापना होती है--देश वाल भथवा जातियों की अजनेकता के कारण संस्कृति का भी विभाजन किया जाता है परन्तु यह गध्ययन के लिये ही किया जाता है । -अपने सम्पूर्ण अर्थों तथा प्रवृत्ति में मानव जाति की सरकृति एक है तथापि उसके वर्ग अनेक है । संस्कृति की व्यापकता मथवा विस्तार क्षेत्र संस्कृति मातव के भरुत वर्तमान तथा भावी जीवन की सर्वागपुर्ण अवस्था है । यह जीवित रहने का ढंग है । यदि विवेचनात्मक हप्टि से निरीक्षण किया जाये तो हमे इस परिणाम की प्रप्ति होगी कि जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा उसके भी उपरान्त जन्म जन्मान्तर तक संस्कृति रामस्त मानव चेतना को व्याप्त किये हुए है । व्यक्ति के आचरण चिस्तन ल़ियाशीलता ज्ञान आाध्यात्म एवं कल्पना मे संस्कृति का ही रूप स्थित है । संस्कृति सानव जीवन के आन्तरिक तथा बाह्य रूप को समान रूप से व्याप्त किये हुए है । यह मानव जीवन की एक परम तथा भावश्यक विशेषता है तथा इसमें सभ्य मानवता के सर्वश्रेष्ठ गुण ब्रिद्यमान है । जीवन को कोई थी भंग संस्कृति की परिधि के बाहर नही हूं । सरछति के बशोभुण हो कर मानव उन क्रियाओं को करता है जिनके हारा उसका भविष्य निर्धारित होता हू । ढा० रामघारी सिह दिनकर के अनुसार संध्छत वह चोज मानी जाती हे जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना एवं विकास में अनेक पीढ़ियो के अनुशवा का हाथ है । सक्षेप मे हम कह सकते हैं कि सम्कति मानव के शौतिक तथा पारलीविक जगत को समान रूप से ब्लप्त किये हुए हे । अपने विस्तार क्षेत्र के बनुसूप सस्कृति जीववयापन की विधि है । संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार मनुष्य के साथ-साथ चलता हे । धर्म दर्शन साहित्य और कला उसी के अग है । सभ्यता और संस्कृति स्पै्लर के शब्दों में संस्कृति कठोर होकर सभ्यता वन जाती हें एक निश्चित शाकार ग्रहण कर लेती हे जिसमे कोई और रूप धारण करने और भागे विकास की क्षमता नहीं रह जाती । सभ्यता तथा सरछकृति शब्दों को प्राय साध-साथ प्रयुक्त किया जाता हैे। इन दोनों शब्दों को एक साथ प्रयुक्त करने का कारण इनकी व्यापकता हे। थे दोनो विषय मानव की गाथा के साथ सम्बन्धित हैं अंत. इनके बिना मानव इतिहास तथा. मानव के क्रियाकलापों का अनुमान मुल्याकन तथा उद्देश्य समभ पाता असभव है । सभ्यता तथा_संस्कृति मानव समाज की उपलब्धियों की ओर संकेत करती है। ये दोनो शब्द मानव जाति के#उदय विकास तथा सामूहिक जीवन से सम्बन्धित है । सभ्यता तथा संस्कृति के अन्तर को समभ लेना तभी सम्भव हे जवकि हम इन दोनों के अर्थों को स्पप्ट रूप से समभ लें 1 सभ्यता का अं सम्पता का सम्बत्च उपयोगिता से होता हे । मनुष्य केवल उन्ही कार्यों को करता है जो
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