महा कवि कालिदास | Maha Kavi Kalidas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.19 MB
कुल पष्ठ :
110
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१ महाकवि कालिदास किदललनतार िनननननननननण कहा उनके धनुष की टंकार से दसों दिदाएं कॉपती हैं । उनके फरसे से पता नहीं कितने निर्दोषों का लाल गरम लह टपकता है । उनके एक इशारे पर कितनी ही सुहागिनों का सिन्दूर घुल जाता है । उनके भय से धरती डगमग-डंगमग होती रहती है वही सम्रादुन दो डग और हटकर कालिदास फिर बैठ गए । वह मुँह फेर- कर इस प्रकार सरोवर की लहरों पर चॉदी की तरह शिलमिल करता फेन देखने लगे जैसे श्रास-पास कोई श्रौर है ही नहीं । हरिषेण चकित हो गए । विचित्र है यह युवक आज धरती पर पहली बार उनको ऐसी वातें सुनने को मिली थीं । कालिदास ने जो कुछ कहा है उसे वह स्वय भी मानते है । पर उनके स्वर में जो श्रपमान है घृणा है हरिषेण ने उसे पहली बार श्रनुभव किया था । इस युवक के कण्ठ का स्वर ग्रभी-ग्रभी अमृत के समान मधुर लग रहा था । पर इस समय उसी स्वर से जैसे पिघले हुए श्रंगारे वहकर हरिषेण के रक्त में मिल गए । उनका दारीर दहकने लगा । श्राँखों से चिनगारियाँ बरस पड़ी । भौदें खिच गई । क्रोध के मारे वह एक दाव्द थी न बोल सके । पत्थर की तरह खड़े रह गए । एकाएक कालिदास ने कहा सुनकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ था । एक बार पाटलिपुत्र जने की बड़ी लालसा थी । पर श्राप तो व्यापारी निकले । रत्तों का ही व्यापार करते तो ठीक था श्राप तो मनुष्यों का भी व्यापार करते हैं । श्रापके सम्राट क्या हर व्यक्ति को दास समककर खरीदते है? कालिदास महामात्य ने धीर-गम्भीर स्वर से उन्हें रोका तुम सम्राट का अपमान कर रहे हो । मैं किसी का झपसान नहीं कर रहा हूँ । जो सच है वही कह रहा हूँ ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...