महा कवि कालिदास | Maha Kavi Kalidas

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Maha Kavi Kalidas by सुशील कुमार - Susheel Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ महाकवि कालिदास किदललनतार िनननननननननण कहा उनके धनुष की टंकार से दसों दिदाएं कॉपती हैं । उनके फरसे से पता नहीं कितने निर्दोषों का लाल गरम लह टपकता है । उनके एक इशारे पर कितनी ही सुहागिनों का सिन्दूर घुल जाता है । उनके भय से धरती डगमग-डंगमग होती रहती है वही सम्रादुन दो डग और हटकर कालिदास फिर बैठ गए । वह मुँह फेर- कर इस प्रकार सरोवर की लहरों पर चॉदी की तरह शिलमिल करता फेन देखने लगे जैसे श्रास-पास कोई श्रौर है ही नहीं । हरिषेण चकित हो गए । विचित्र है यह युवक आज धरती पर पहली बार उनको ऐसी वातें सुनने को मिली थीं । कालिदास ने जो कुछ कहा है उसे वह स्वय भी मानते है । पर उनके स्वर में जो श्रपमान है घृणा है हरिषेण ने उसे पहली बार श्रनुभव किया था । इस युवक के कण्ठ का स्वर ग्रभी-ग्रभी अमृत के समान मधुर लग रहा था । पर इस समय उसी स्वर से जैसे पिघले हुए श्रंगारे वहकर हरिषेण के रक्त में मिल गए । उनका दारीर दहकने लगा । श्राँखों से चिनगारियाँ बरस पड़ी । भौदें खिच गई । क्रोध के मारे वह एक दाव्द थी न बोल सके । पत्थर की तरह खड़े रह गए । एकाएक कालिदास ने कहा सुनकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ था । एक बार पाटलिपुत्र जने की बड़ी लालसा थी । पर श्राप तो व्यापारी निकले । रत्तों का ही व्यापार करते तो ठीक था श्राप तो मनुष्यों का भी व्यापार करते हैं । श्रापके सम्राट क्या हर व्यक्ति को दास समककर खरीदते है? कालिदास महामात्य ने धीर-गम्भीर स्वर से उन्हें रोका तुम सम्राट का अपमान कर रहे हो । मैं किसी का झपसान नहीं कर रहा हूँ । जो सच है वही कह रहा हूँ ।




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