श्री अरविन्द साहित्य दर्शन | Shri Arvind Sahitya Darshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.24 MB
कुल पष्ठ :
186
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. श्याम बहादुर वर्मा - Dr. Shyam Bahadur Verma
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इच्य जीवन १७ ठोस अनुभव में । किन्तु सामान्यतया इन्द्रियों तथा दन्द्वात्मक भाव वाले सन के द्वारा हमें प्राप्त व्यावहारिक मूल्यों की विशालतर सामंजस्य प्राप्त होने तक अपनी उपयोगिता है ही । सामान्य मानव से ऐसी ही भूल यह भी होती है कि वह विश्व सत्ता का केन्द्र अहंकार को मानता है तथा अहंकार की टन्द्रमयी दृष्टि से ईश्वर और उसके कार्यो का निर्णय करता है । मनुष्य का प्रधानुयायी मन केवल सोपाधिक परिसी- मित्त और पराधीन ज्ञान सुख शक्ति और शुभ को ही संभव मानता है । और यद्यपि वच्तुतः उसका भगवान और स्वर्ग का स्वप्न वस्तुतः अपने परिपूर्णत्व का ही स्वप्न है तथापि जिस प्रकार उसके पूर्वज वानर के लिए यह विश्वास करना कठिन था कि वही भविष्य में मनुष्य वन जाएगा उसी प्रकार व्तेमानकालीन सचुष्य को भी यह स्वीकार करना कठिन होता है कि उस दिव्य अवस्था को पृथ्वी पर प्राप्त कर लेना उसके जीवन का चरम लक्ष्य है । वास्तव में यह अहंकार के कारण ही है कि कुछ घटनाओं को दुःख अशुभ आदि मान लिया जाता है जबकि वे आतंद- पूर्ण शुभ इत्यादि हैं। यदि व्यक्ति विश्व-वेतना तथा विश्वातीत चेतना में भाग ले तो इन्दों का यथाथे मूल्य सामने आ जाता है । वेदान्ती ज्ञान के साधन श्री अरविन्द ने जगत में सच्चिदानन्द के कार्य तथा सच्चिदानंद व अहंकार के सम्बन्धों की मीमांसा करते हुए शुद्ध तकै-बुद्धि का महत्त्व बताया है । इसी से हम भौतिक ज्ञान से बढ़कर तात्विक ज्ञान तक आ जातेहैं । इसके द्वारा हम इन्द्रियगत साक्षात्कारों से बढ़कर वौद्धिक साक्षात्कारों तक पहुंचते हैं। किन्तु सानव-विकास के लिए यह भी पर्याप्त न होने से हम मानस-साक्षात्कार तक पहुंचते हैं । हम अपनी मानसिक स्वानुशूति की शक्ति को उस आत्मा की अनुभूति के लिए विस्तृत कर सकते हैं जो हमसे वाहर और परे हैं जिसे उपनिषदों ने आत्मा या ब्रह्म कहा है। तब हम उन सत्यों का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं जो विश्व में व्याप्त आत्मा या ब्रह्म के अन्तस्तत्त्व हैं। इस संभावना के ऊपर ही भारतीय वेदान्त ने स्वयं को प्रतिष्ठित किया है । किन्तु वेदान्त मन और बुद्धि दोनों से परे जाने का निर्देश करता है क्योंकि उच्चतम मानसिक अनुभव और वौद्धिक धारणाएं भी परम सत् तत्व नहीं हैं अपितु उनके प्रतिविम्व मात्न हैं । श्री अरविन्द वेदान्त के अनुसार अन्तप्रज्ञा (इन्ट्यूशन ) के स्वरूप एवं महत्व का विवेचन करते हैं । ज्ञाता और ज्ञेय में सचेतन या प्रभावी तादात्म्य ही अन्तःप्रज्ञा का आधार है -यह सर्वेसामान्य आत्मसत्ता की वहू अवस्वा है जिसमें ज्ञान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं । किन्तु अन्तःप्रज्ञा की पूर्ण अभिव्यक्ति अवचेतन में न होकर बतिचेतन में होती है। अन्तःप्रज्ञा ही उच्चतम संभव ज्ञान की अवस्था है जव मन अतिमन
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