कबीर साहिब का साखी - संग्रह | Kabir Saheb Ka Sakhi Sangrah

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Kabir Saheb Ka Sakhi Sangra Bhag  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्दे र तो संत भाव है जो. मरे झेद बताये । घन्य सिष्य घन भाग तेंदिं जो ऐसी संधि पे 0१३९) जन फबीर केहिं सेव । वार पार म॒ नहीं नगो नमो गुरु देव ॥ ३७ झूठे शुरू का अंग गुरू मिला न सि मिला लाजने दांव । दोऊ. दे र में चद़िं पायर की. नाव 0९0 जा का उुर है धरा चेला निपद लिरंघ । तघ दोऊ रु परंत त२१ जानंता नदीं बूकि किया नहिं गो । झ्ंघे उूंघा मिला रा बृतावे फीन ॥रै0 कबीर पूरे अर बिना प्रा सिष्य न शोय। दाकनर .. दोय ॥४ त गुरु जोी सिद लालची दर पुरा. स्तर न पिला सुनी अपूरी सीख । स्वॉग जती रंग पहिरि के घर पर मँगे.. भीख 0 में गरू में भाव) गुरू गुरू गुरू... गुरू सोई गुरु नित बंदिये ( जो सब बतावे दाव ९) बेहद गरु और । कनफूका गु का का गु उचद का गरु जब पिलै ( तब ) ले ठिकाना ठौर 0७ चीन्दा नादिं । गुरू किया हे देंद्र का सतगुर उवसागर के जाल में फ़िरि फिरि गोता खादहि ॥८ जा गुरु हूँ श्रम ना मिंटे श्रांति न जिद की जाय । गुरु तो. ऐसा चादिगे च्ातारूना ऐसा. चाहिये देव सबद... उखाय ्झ न - -एर् कल्कुल बंद ईै। ह४ जानकार भेदी । (दे) तपन (४) भट




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