मंत्र मूर्ति और स्वाध्याय | Mantra Murti Aur Swadhyay

Mantra Murti Aur Swadhyay by पं. चैनसुखदास - Pt. Chainsukhdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूर्तिपूजा मूरतिपूजा का इतिहास बहुत प्राचीन है । मनुष्य की धार्मिक चर्या मे इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । झ्रास्था श्रौर श्रद्धा के अग देवप्रतिमाओ् के चरणपीठ वने हुए है। मूर्ति मे निराकार साकार हो उठता है श्रौर इसके भावपक्ष की दृष्टि में साकार निराकार की सीमाओओ को छ लेता है । मूर्ति अकम्प और निश्चल होने से सिद्धावस्था की प्रतीक है । उपासक श्रपनी समस्त वाह्य चेष्टास्रो को श्रौर शरीर की हलन चलनात्मक स्पत्दन क्रियास्रो को योग- मुद्दा में श्रासीन होकर मत्तिवत्‌ श्रचल-्रडिग करते श्रौर सम्मुख- स्थित प्रतिमा के समान तद्गुण हो जाए यह उसकी सफलता है । मूति मे मूर्तिघर के गुण मुस्कराते है । वह केवल पाषाण- मयी नहीं हे। उसके झ्रचेंको पर पापाणपुजक लाउ्छन लगाना अपने अकिचित्कर वुद्धिविभव का परिचय देना है । मूर्ति में जो व्यक्त सौन्दर्य है उमके दर्जन तो स्थल झ्रॉँखो वाले भी कर लेते है किन्तु उसके भावात्मक सौन्दर्य को पहचानने वाले विरले ही होते है । मू्तिकार जव किसी ग्रनगढ पत्थर को तराशता है तो उसकी छेनी की प्रत्येक टकोर उत्पद्यमान मूर्तिविग्रही देव की प्राण- वत्ता को जाग्रत करने में अपना भ्रशेप कौशल तन्मय कर देती है । श्रसीम धैर्य के साथ श्रश्नान्त परिश्रमपूर्वेक उसके तक्षण में गुरणाधान को प्रक्रिया कार्य करती रहती है । अ्रवयवों के परिप्कार से रेखाय्ों की भगिमा से शभ्रधरों की बनावट से चितवन के कौशल से वरोनियों की छाया में विधान्त नीलकमल से सयनो की विशालता से पीन-पुप्ट भुजदण्डो से न केवल मूरतिकार श्रगसौप्ठव ही तैयार करता है श्रपितु वह स्पन्दनरहित प्राणाधान




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