भारतीय पुरातत्व | Bharatiya Puratatva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अआचार्थ श्री जिनविंजप मुनि संक्षिप्त परिंचथ पुरातस्वाचार्य श्रीजिनदिजय मुनि का जन्म राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की हुरडा तहसील के अन्तर्गत रूपाहेली नामक ग्राम मे माघ शुबला १४ स० १६४४ तदनुसार २७ जनवरी सद्‌ १८८८ ई० के दिन सूर्योदय के पश्चात हुश्रा। परमारवशीय क्षत्रिय कुलीन श्री बिरघीसिह (वडदरसिह) इनके पिता थे तथा सिरोही राज्य के देवडा वशीय चौहान घराने के एक जागीरदार की पुत्री राजकुवर इनकी माता थी । इस बालक का नाम किसनसिंह रखा गया यद्यपि मा दुलार से इन्हे रणमल के नाम से पुकारती थी । भें मुनिजी के पुर्वंजो ने १८५७ के स्वातंत्रययुद्ध के समय श्रजमेर-मेरवाड़ा जिले मे झ्रग्रे जो के विरुद्ध झाचरण किया था अत. प्रतिशोध के रूप मे अंग्रेज सरकार द्वारा इनकी जमीन-जायदाद जागीर झ्रादि सब सम्पत्ति जब्त कर ली गई श्र इनके परिवार के श्रनेक लोगो को मार भी डाला गया । इनके दादा शभ्रपने दो पुत्रो--इन्द्रसिह और विरघीरसिंह के साथ किसी तरह वच निकले श्रौर उन्होंने लगभग सारी जिन्दगी अज्ञात- वास मे इघर-उघर छुमते-फिरते ही व्यतीत की । वे भटकते-भटकते रूपाहेली पहुँचे श्रौर वहा के ठाकुर से सहानुभुति प्रात करके वहा श्रपने पुत्री को रख गये । वृद्धिर्सिह सिरोही राज्य में जंगलात विभाग के श्रधि- कारी बने ॥। वहीं उनका विवाह हुमा । तत्पश्चाद्‌ वे रूपाहेली लौट श्राये । बुढ़ापे मे बरृद्धिसिह को सग्रहणी रोग हो गया जिसका इलाज उन्होने एक जैनयति श्री देवीहस से कराया । श्री देवीह्स ने बालक की बुद्धिमत्ता और प्रत्युत्पन्नमति को देखकर उनके पिता से कहा--किसनसिंह को अच्छी तरह पढाश्रो-लिखाओ । यह वालक़ कुल का मुख उजवल करने वाला होगा । स० १९५५ में वृद्धिसिह का देहावपतान हो जाने पर परिवार एकदम निराश्रित हो गया और फलत किसनसिंह की पढ़ाई की कुछ व्यवस्था न रही । यह देखकर यतिदेवीह्स ने किसनसिंह को पढाने के लिए श्रपने पास रख लिया । उनके यहां ऐसे ही ८-१० बालक झऔर .भी थे पर कुछ समय बाद ही यतिजी श्रकस्मात्‌ श्रपनी बेठक में तख्त पर से नीचे गिर पड़े जिससे उनकी पिंडली के पास की हड्डी टूट गई । कुछ दिन बीमार रहने के बाद वानेण के एक यति वहा झ्राये जो श्री देवीहस को सेवा-सुश्नुषा के लिए झपने गाव ले गए । किसनसिंह ने यतिजी की बडी सेवा की पर तीन महिने बाद उनका देहावसान होने पर वह बालक फिर निराश्रित हो गया । जब किसन्सिह की साता को यह समाचार मिला तो उसने किसनसिंह को रूपप्हेली श्राजाने के लिए कहा पर किसनसिह के समन मे तो ज्ञान तथा शझ्ध्ययन की तीन्र पिपासा जागृत हो गई थी अत वे रूपाहेली न श्राकर थति गभीरमल के कहने से उनके गाव मड्या चले गए सौर वहा दो-ढाई साल तक श्रध्ययन करते रहे ।




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