अपूर्व अवसर | Apoorv Avasar

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Apoorv Avasar  by गुलाब चन्द्र जैन - Gulab Chandra Jainबंशीधर शास्त्री - Banshidhar Shastriराकेश कुमार जैन - Rakesh Kumar Jain

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बंशीधर शास्त्री - Banshidhar Shastri

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राकेश कुमार जैन - Rakesh Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्छु युणस्वानक फ्रमारोहण परमपद प्राप्ति की भावना श्रीमट्र राजचंद्र प्रणीत अपने अवसर पर श्री कानजी स्वामी के प्रवचन इस काव्य में मुख्यतया परमतद (मोक्ष) को प्राप्ति की भायना व्यवन की गई है । आत्मा ल्िकाल जाता इप्टास्वसूप अनन्त गुणों क पिण्ट है उसका अनभेव करने के लिए संवंज् वोतराग की आजानिसार ७ कक कलह नन्वायों की निध्चयश्रद्धा होती है सस्पइचानूं ज्ञार्मानस्‍्द स्व नाव कं ननकक . बनि। तरफ प्रवृत्त होने का पुरुपार्थ बढ़ने से क्रमश शुद्धता की चूद्धि होती है । इस अपेक्षा से जीव की अवस्था में १४ गुणस्थाने होते हैं । उनमें से चौथे गुणस्थान से विकास की श्रेणी प्रारम्भ होती हूं । श्रीमदू राजचन्द्रजी ने अपनी जन्मभूमि बचाणिया (सी राष्ट्र ) मे प्रात काल भपनी मातुश्री की शय्या पर वेठकर इस असुर्व अवसर नामक काव्य की रचना की थी । जैसे महल के ऊपर चढ़ने के मिगे सोढियाँ होती है वैसे ही मोक्षरपी महल में जाने के लिये १४ सीढियाँ हू । उनमें से प्रथम सम्यगदर्शनरूप चौथे गुणस्थान से मगलमय प्रारम्भ होता है। आत्मस्वरूप की जागृति की वृद्धि के लिये यह भावना है ।




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