मुक्ति का रहस्य | Mukti Ka Rahasya

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Mukti Ka Rahasya by श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१४ ) जो लोग यह समभते हैं कि छुद्धिवादी केवल संहार कर सकते हैं-- निर्माण करना उनका काम नहीं--वे जगत शोर सृष्टि के मूल में ही मिथ्याचाद और आम का झारोप करते हैं। स्टि का मेसदण्ड शायद उनकी समस में चेतना श्र प्रकाश का नहीं घना हे । उनकी नजर श्रन्ञान और भ्ंधकार के आगे नहीं बढ़ सकती । सनुष्य की सष्टि यदि इस श्रनादि सष्टि की छाया से ही चिर्मिति होती है तो उसके मु में चेतन है झ्रचेतन नहीं । इसी चेतन को हस बुद्धिबाद कहते हैं । इस समय ध्ीर सीमा के निर्धारित जगत में इम जो कुछ देखते है--जो कुछ सुनते हैं जो कछ श्रछुभव करते है उसे हम सिर खुरका कर स्वीकार कर लेते हैं--यदद साधारण बात है । लेकिन जब दम उसकी तात्विक चिवे चना करते हैं--उसे दर पहलू से उलद-पलट कर देखना चाइते हैं तब हमें मावना के जगत से निकल छर चिवेक के जगत में लाना पदता है । हमारी जज़ीरें उत्तनी कही नहीं रंहतीं--कभी-कभी तो टूट जाती हैं । इमारा दृष्टिकोण विस्तृत हो उठता है ससार जैसे विवेक श्बौर सहानुभूति से भर उउता है। मनुष्य श्रपने सुख-दुख का उत्तरदायी स्वयं है । यदि वद्द विचार करे तो उसकी कठिनाइयों बहुत कुछ कम हो सकती है । बद्धिवाद इस रहस्य को स्पष्ट कर देता है । सभ्यता को जटिलता के साथ ही साथ मनुष्य का जोचन भी जटिल होता जा रही है। समाज श्र साहित्य सें धर्म घर सदाचार से उखाइने शोर बेढाने की क्रिया चल रही हे । मचुष्य रूद़ियों के झंघकौर से निकल कर विवेक के प्रकाश में था रद्दा है । लोग समस रहे हैं कि बीते जमाने में धर्म और सदाचार के नाम पर भयकर ्रघर्म श्र भयकर डुराचार हो गए थे । इसलिये यह युग चुद्धिवाद की वकालत कर रददा है । हसमें जो लब से साधारण दे उसकी श्ाष्मा में भी श्रसीम दंद है तब ? उदारता श्रोर सहिष्युता या एक शब्द में सहानुभति । चेस्टटन ने कहा है साहित्य का उद्देश्य जीवन का श्रतिरूप खड़ा करना नहदीं- उसमें सहामुभति भरना हे 1 ? दाद्सटाय श्र रोस्यारोलां श्रनातोले फ्रॉस श्र बर्नंडशा इसीलिये




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