शकुंतला नाटक | Shakuntala Natak

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Shakuntala Natak by राजा लक्ष्मण सिंह - Raja Lakshman Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अछ्क पहला] सहज स्त्रभाव चक्र जो कोई । सरल रूप दीखिति - व सोई ॥ छिन न दूर कछु छिनहु ने नेरे। कारन श्रथिक वेग रथ केरे ॥£1 सारथी देखो अत्र दम इसे गिराते हैं । घनुष पर बान चढ़ाता दे नेपथ्य में हे राजा इसे सत मारो यह आश्रम का झग है । सारथी--( शब्द सुनता श्रौर देखता हुआ )--महाराज बान के सामने हरिन तो श्राया परन्तु बीच में ये त्तपस्वी खडे हैं । -दुष्यन्त ( चकित हाकर )--झच्छा तो घोड़ो को रोको । सारथी ( रथ को ढददराता है )--जो श्राज्ञा । एक तपस्वी दो चेलों समेत श्राता है तपस्वी (वाह उठाकर ) हे क्षत्री यह सग आश्रम का हद नारने योग्य सही है दोहा नाहिन या सूग सदुल तन लगन जोग यह बान । ज्यों फूलन की राशि में उचित न घरन कूसान ॥ कहाँ दीन हरिनान के झ्रति ही कोमल प्रान | य्रे तेरे तीखे कहाँ सायक बच समान ॥ १० ॥। दीखती है जा कटी हुई सी थो वह श्रब जुडी निकली जो पहिले नगीच पर टेढी थी अरब पीछे दूर रद्द जाने पर सीधी दीखती है इस रथ के चेग के आ्रागे दूर और निकट में कुछ श्रन्तर ही नहीं हे | ( १०-११) इस हरिन के केमल शरीर में बान मारना ऐसा हैं जैसे फूलों के ढेर पर श्राग रखना भला देखो तो कहाँ यह कठोर बान श्रौर इरिन के कोमल प्रान इससे हे राजा तू बान उतार ले | यदद ते निरदोषियों की रचा को बनाया है न कि उनके मारने को |




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