भारतीय स्वाधीनता - संग्राम का इतिहास | Bharatiya Swadhinata Sangram Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्रान्ति के परचात सभी को है। विद्रोह को दवाने में लगे हुए अंग्रेज अफसरों के अपने बयानों और उस समय के अंग्रेज लेखकों की स्वीकारोवितयों से उन अत्याचारों की पुष्टि हो चूकी है। उस समय के अंग्रेज शासकों की मनोवृत्ति के कुछ दृष्टान्त निम्नलिखित हैं पेश्यावर में १० जून १८५७ को कुछ हिन्दुस्तानी सिपाहियों को मृत्यु-दण्ड दिया गया था। जिन पर आरोप छगाया गया उनकी संख्या १२० थी। पेशावर के बड़े अफसर एडव्ड्स ने प्रान्त के मुख्य छ्ासक सर जान लारेन्स से पूछा कि क्या उन सब अभियक्‍्तों को मृत्यु-दण्ड दे दिया जाय। सर जान के उत्तर का कुछ अंश मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। उसमें कहा गया था . . हमारा उद्देद्य उन्हें (भारतवासियों को ) डराकर एक दृष्टान्त कायम करना है। यह उद्देश्य सिद्ध हो जायगा यदि हम उनमें से-एक चौथाई से लेकर एक तिहाई तक की किसी संख्या को नष्ट कर दें। मैँ चाहूंगा कि (नष्ट करने के छिए) उन लोगों को चुना जाय जिनका सामान्य चाल-चलन खराब है या जो उपद्रवी असन्तोष फैलाने में अगुआ या २६ ता० से पहले अफसरों के सामने गुस्ताख रह चुके हैं। यदि इनसे नण्ट किये जानेवालों की आवश्यक संख्या पूरी न होती हो तो सबसे बूढ़े सिपाहियों को भी शामिल कर दिया जाय।. . . (के--भाग ६) विसा हो किया गया। स्पष्ट है कि उस समय के अंग्रेज शासकों की दृष्टि में मृत्य-दण्ड किसी अपराध के लिए ही नहीं मारे जानेवालों की संख्या पुरी करने के लिए भी सर्वथा उचित समझा जाता था। एक अन्य आज्ञापन्र में सर जान ने लिखा था-- सबसे अधिक प्रभावशाली मृत्यु-दण्ड यह है कि उसे तोप के मुंह पर रखकर उड़ा दिया जाय। विद्रोह के सम्बन्ध में कद किये गए भारतवासियों को तोप से उड़ाने का दद्य देखकर उस समय के अंग्रेज भी दहल गए थे। एक पादरी की विववा मिसेज कप- ऊण्ड ने लिखा था ्‌ युद्ध के वाद बहुत-से कैदियों को फांसी का दण्ड दिया गया। परन्तु जव देखा गया कि वे फांसी की परवाह नहीं करते तो निरचय किया गया कि उन्हें तोप से उड़ाया जाय। . . .एक अफसर का कहना था कि वह दृश्य बहुत वीभत्स था। . . .एक वेचारे का सिर (तोप से उड़कर) दर जा पड़ा जहां एक दखतदाल के चाट लग गई । जो दण्ड विद्रोह के अपराधियों को दिये गए उनका एक नमना निम्त- रू बनकर एक रजत | ५. पंजाब में कुछ अंग्रेज और सिख सिपाहियों से मिलकर एक घायल कँदी को तति-जा जला दिया। लेपिटनेण्ट मंजंडा को उसे देखने का अवसर मिला । वह निदमिजाकर लिखता




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