राजस्थांनी सबद कोस खंड - ४ | Rajsthanni Sabad Kosh Khand - 4
श्रेणी : भाषा / Language, हिंदी / Hindi
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
145.53 MB
कुल पष्ठ :
1054
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नस भूमि का-ज-ुएजए लेखक डॉ० हीरालाल माहेश्वरी एम.ए.. एल -एल् बी.. डी. फिलू. डी.-लिट्. प्राध्यापक हिन्दी-विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर राजस्थानी-हिन्दी के बृहत कोश-- राजस्थांनी सबद कोस जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की इस श्स्तिम जित्द में भूमिका लिखना मानों सूर्य को दीपक दिखाना है । श्रद्यावधि प्रकाशित श्राधुनिक भारतीय भाषाओं के कोशों में सामान्यतः श्रौर नागरी ग्रक्षरों में प्रकाशित कोशों में विशेषत इस कोश का शअन्यतम स्थान है यह निःसंकोच कहा जा सकता है । साधारण पाठक को भी सरसरी तौर से देखने पर इसके महत्त्व का पता चल जाता है तथापि श्री सीतारामजी लाठस का सनेहानुरोध है कि मैं इस सम्बन्ध मैं कुछ लिखूँ ।. सो इसका शझ्रधिकारी न होते हुए भी इस भाषा श्रौर साहित्य के एक विद्यार्थी के नाते श्रपनी कृतज्ञता ज्ञापन स्वरूप थे पंक्तियाँ लिख रहा हूं। श्री सीतारामजी लाठस की सतत दीघं साधना के साकार रूप इस कोश के महत्त्व-दिग्द्श॑न के लिए राजस्थानी भाषा श्रौर साहित्य पर दो शब्द कहने प्रावश्यक हैं । राजस्थानी साहित्य श्रत्यस्त समृद्ध श्र विशाल है । इसकी अधिकांश महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भ्रभी तक हस्तलिखित प्रतियों के रूप में ही प्राप्त हैं। इन रचनाग्रों की प्राप्ति श्र अध्ययन अत्यन्त श्रमसाध्य है। श्रनेक पण्डितों के प्रयासों के फलस्वरूप कुछ रचनाएँ पुस्तक रूप में सामने श्राई हैं श्रौर श्रनेक छोटी-छोटी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओओं के माध्यम. से प्रकाश में आई भ्रौर आरा रही हैं । साधनों के अभाव में भ्राघुनिक लेखकों की बहुत सी कृतियाँ भी प्रकाशित नहीं हो पा रही हैं। जो रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं उनकी प्राप्ति में भी काफी प्रयास करने पड़ते हैं । कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक नहीं है । एक सर्वांगपूर्ण मानक शब्द कोश के लिए उस भाषा की सभी महत्त्वपूर्ण कृतियों का सुसम्पादित रूप में प्रकाशित होना श्रावश्यक है । राजस्थानी के लिए यह बात अ्रत्पांश में ही सत्य है । श्री सीतारामजी को कोश के शब्द चयन में कतिपय हस्तलिखित ग्रन्थों के अतिरिक्त अधिकतर ऐसी पुस्तकों पर् निर्भर रहना पड़ा है । शब्द-चयन श्रौर रूप में इसी भ्रचुपात से कोश की काया का निर्माण हुआ है। शब्द के अरथे उसके प्रयोग व्याकरशिक परिचय रूप-भेद तत्सस्बन्धी मुहावरों श्रौर कहावतों तथा सम्बन्धित टिप्पणियाँ कर्ता को हैं जो इस विषय में उसके गहन पाण्डित्य की द्योतक हैं । ऐतिहासिक हष्टि से श्राघुनिक भारतीय ग्राय॑ भाषाम्ों के विकास- क्रम में राजस्थानी का सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से है । शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी अ्रपश्र श और गुजर या गौजंरी शभ्रपश्न॑श का विकास हुमा है। शौरसेनी श्रपश्रश का क्षेत्र मुख्यतः मथुरा-मण्डल तथा उसके अ्रासपास का प्रदेश था।. गुजर अपभ्रेश का क्षेत्र गुजेर-प्रदेश था जिसके श्रन्तगंत वर्तमान राजस्थान गुजरात तथा पंजाब सिन्ध श्र मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्र सम्मिलित हूँ । . प्राप्त श्रपश्नेश साहित्य के प्राधार पर श्रपश्रश को पूर्वी पश्चिमी श्र उत्तरी रूपों में विभाजित किया जा सकता है। यहाँ यह भी लक्ष्यनीय है कि किसी समय ्रपश्न श पूरे उत्तर भारत में साहित्यिक भाषा की मर्यादा ग्रहण कर चुकी थी । उसका एक ऐसा सामान्य रूप था जिसका सूलाघार पश्चिमी ग्रपश्नश था । पुनः प्राप्त अपभ्रेश साहित्य का बहुलांश पश्चिमी श्रपभ्रश में है। इस पश्चिमी अ्रपभ्र श अथवा गुजरी. अपभश की श्रनेक विशेषताएँ पुरानी राजस्थानी में पाई जाती हैं । विक्रम संवत् 1100 के लगभग गुर्जरी अपश्रश से जिस भाषा का विकास हुआ उसके कई नाम दिये गए हैं यथा--मरु-गुजंर पुरानी पश्चिमी राजस्थानी मरू-सोरठ जुनी गुजराती पुरानी राजस्थानी आ्रादि । इनमें मरु-गुजर नाम सर्वाधिक संगत लगता है जिससे गुजरात अर सरु प्रदेश--दोनों की भाषाश्ों का बोध होता है । श्रपने उद्भव- काल से लेकर लगभग संबत् 1500 तक गुजराती श्रौर राजस्थानी एक ही थी । भाषिक हष्टि से दोनों का इतिहास इसके पश्चात् प्रथक्- पुथक् होता है । मरु-गुजर या पुरानी राजस्थानी के उद्भव-काल--संबत् 1100 से . लेकर वर्तमान समय तक राजस्थानी में विभिन्न शेलियों में प्रभूत परिमारा में साहित्य-रचना होती रही है । विक्रम की उलन्नीसवीं शताब्दी उत्तराद्ध और बीसवीं शताब्दी के झ्रारम्भिक 5-6 दशकों में मरंग्रेजों के फैलते और सुदढ़ होते राजनेतिक प्रभुत्व तदूजन्य परिस्थितियों वचारिक परिवर्तेंनों आदि के कारण साहित्य की धारा मंद तो पड़ीं पर किसी न किसी रूप में वह प्रवाहित अवश्य होती रही । वतेसान शताब्दी में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के श्रासपास से राजस्थानी मैं साहित्य- निर्माण की गति पुन तेज हुई श्र उसका क्षेत्र-विस्तार हुआ ।. यह परम्परा श्र पूरे जोर से चालू है । मोटे रूप से इन साढ़े नौ सौ सालों के राजस्थानी-साहित्य के इतिहास को इन तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है --
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rakesh jain
at 2020-12-06 16:31:38