दिव्यावदना | Divavadana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना । अत विंटरनिट्श मानते है किं इस अथ के मिन्न मिन्न अग मिलन मिन्न समय मे रचित है । उसके कई अश खिस्तोत्तर तृतीय राताब्दी के पूर्व लिखे गये है यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है । दिव्यावदान के सकल्यिता ने मूलसर्वास्तिवादियों की विनय - वस्तु तथा कुमारणात की ऋल्पनामंडि तिका का पयी्त उपयोग किया है । यह भी सिंद्र किया जा चुका है कि गिलजित पाडुठिपियो मे अवस्थित विनय - वस्तु मे इस ग्रथ के अनेक अवदान पूर्णत या अद्यत मिलते है । उदाहरण के लिए छीजिये- मांधातावदान (ऋ० १७) अदयतः विनय - वस्तु ( ० ९२-९८ ) से तथा अद्यतः मध्यमागम से लिया गया है जैसा कि निम्न उद्धरण से स्पष्ट है- विस्तरेण मान्धात- सूत्र मध्यमागभ राजसयुक्तकनिपाति ( प्र० ९३ ) सुघनकुमार ( कर ३१ स्तुति- ब्राह्मण ( ऋ० ५१) जैसे अनेक अवदान विनय -बस्तुसे लगभग अक्षर उद्धृत है । यह प्रथ ( विनय - वस्तु ) आशिक रूपसे ही उपलब्ध है इस ढिए इससे अधिक चर्चा इस विषय की सभव नहीं । तथापि यह सपूर्ण सम्रह चौथी शताब्दी से बहुत पहले विद्यमान रहने की समावना नहीं दिखाई देती । कारण यह है कि अशोक के उत्तराधिकारी ही नहीं शुगवश के पुष्यमित्र तक के राजा (० प्रू० ढगभग १७८) इस प्रथ मे उल्लिखित है। दीनार का निर्देश भी बार बार पाया जाता है । अत मे यह भी देखना होगा कि कनिष्क के बहुत समय बाद पैदा हुए कुमारछात के पश्चात्‌ आवश्यक कालावधि बीत जानी ही चाहिये ताकि उसकी कल्पनामंडितिका से सम्रहकर्ता को बहतसे उद्धरण ढेना सभमव हो । ये सब बाते हमे लगभग ३५० तक पहुँचा देती है । दूसरी ओर से महत्व का सबूत यह है. कि दिव्यश्नदान की जनकथाओ मे सब से दिलचस्प कथा (० ३३ )-सक्षिपत्त रूप में ही क्यो न हो-सन २६५ मे चीनी भाषा मे अनूदित मिलती है । इस लिए बेखठके माना जा सकता है कि इस ग्रथ का प्रस्तुत रूप मे सचयन खिस्तोत्तर २०० और ३५० के बीच मे प्रूरा हुआ होगा । ५. दिव्यावदान के उद्गमः- बौद्घो के संस्कृत-निविष्ट धर्मग्रथ जो पाली - भाषा - निवि्ट त्रिपिटक के समकक्ष हैं बारह विभागों मे विभाजित हैं जहीँ पाली धर्मप्रथ केवल नौ गो मे ही विभक्त मिलते है।-- सूत्र गय व्याकरण गाथोदानावदानकम । इतिवृत्तक निदान वैपुल्य च सजातकम । उपदेशाडुती धर्मी द्वादशाज्मिंद वचः ॥ ( हरिभद्-आछोंक बड़ौदा संस्करण एर० रे )




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