लखनऊ की कब्र | Lucknow Ki Kabra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_... के लखनऊ की कृत ्रौर कहा जनाबमियां नज़ीर खां दोस्तमन मेरी बेडद्वयी सु्ाक़ करना | लाचारी दी ऐसी है कि मुझे तुम्ददरी झांखों पर बद्स्तूर श्राजभी इतने सदमे पहुंचाने पड़े । मेने ज़रा. गला दबा कर धीरे से कहा - झाजी वी इस का _ कुछ खयाल न करो । _ उसने कहा - अलहम्दलिलाह | सिर अब ज़रां थोड़ी देर तुम _ यहीं ठह्रे रहो मैं. देख आऊँ तो तुम्हें अन्दर ले चढूँ। मने सुफ्तसर तार पर (खिफ -- बेदतर कहकर उसकी बात का जवाब दिया ओर 7 बह चायद्‌ चंछी गई क्योंकि उसी वक्त मेंसे दर्वाज़ के खुछने और सिड़ने की बहुत ही घीमी आाइट पाइयी। वह जगह जहां पंर बुढ्ढी मुझे तनदां छोड़ गई थी कैसी थी इस _ की जांच करने के लिये मैं ज़मीन में बैठकर अंधेरे ही में उसकी लवाई चोड़ाई नापने गा और थोड़ी ही देर की जांच में मैंने यह जान लिया कि यह बोठरी आठ हाथ की लंबी चौड़ी चौकोर है. और उसके चारो ओर एक. रद्वाजा है जिनमें तालेतो नहीं ठंगे हैं पर वे बंद ज़रूर हैं कींठरी का फू गेच किया हुआ है और दीवार भी पक्की है लेकिन वह कितनी ऊंची है खड़े होकर हाथ ऊंचा करने पर भी इस बात का अन्दाज़ा में न कर सका क्यों के अधेश देखा घना था कि गोया मैं ही के दूर्या में डुबो दिया गया हों । ._.. . जब तक से उस कोठरी की नाप खोज करता रहा मे खयाल ब्रा हुआ था लेकिन जब में उस दोख चिली के खिलवाड़ से फारिय हुआ तो मेरे दिल में तरह २ के खयाल पैदा होने लने और उनसे खादी करने के छिये में मज़बूत हुआ । क्योंकि उस खुट्टी के आने होने ढगी गो वह जदइ छौट आने का वादाकर गई थी । यरज कि सेंरी घबराहट बढ़ने ठगी दिख में कुछ कपकपी पंदा इुई हिस्मत दिल का साथ छोड़ने पर अमादा हुई और जान पक अजीब इन में फंस गई में जो कुछ ख़यालात पक के




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