मनुस्मृति में शिल्पियों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा | Manusmriti Me Shilpiyo ki Samajik evm Arthik Dasha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उल्लेख किया है देहात और शहर से जुड़े हुए कारीगरों के आर्थिक स्तर में भी काफी अंतर रहा होगा ऐसा लगता है। गाव की आवश्यकताओ की पूर्ति स्थानीय कारीगरो के ही माध्यम से हो जाया करती थी जिन धातुओ का उत्पादन छोटे पैमाने पर स्थानीय स्तर पर हुआ करता था। इनसे जुड़े कारीगर केवल उन्हीं वस्तुओ के उत्पादन मे व्यस्त रहते थे जिनकी मांग स्थानीय थी। दूसरी ओर इस काल से ही शहरों की स्थापना के ज्यादे प्रमाण मिलते है नगरो के विकास के कारण शहर मे बसने वाले लोगो की मांग का क्षेत्र काफी व्यापक था और शहरी इलाकों के ही अनुसार बडे-बडे उद्योगो को विकसित होने मे काफी बल मिला और यही कारण था कि शहरी इलाकों मे वस्तुओ के उत्पादन का पैमाना काफी वृहद था | कारीगरो और शिल्पियों की सामाजिक स्थिति कम से कम मनुस्मृति मे इस प्रकार का इगित है द्विज सेवा में रत शूद्र से निम्न थी क्योंकि यह कहा गया है कि यदि कोई शूद्र द्विजों की सेवा से अपनी जीविका नहीं चला सकता तो ऐसी परिस्थिति में उसे शिल्प कार्य से जीवन निर्वाह करना चाहिए । ऐसी परिस्थिति में इस प्रकार का कथन कि कारीगरों के हाथ हमेशा पवित्र रहते है का वास्तविक तात्पर्य यह नहीं था कि कारीगरो की सामाजिक स्थिति अच्छी (पवित्र) मानी जाती थी बल्कि इसका वास्तविक तात्पर्य यह था कि कारीगरों की हाथ की बनायी गयी वस्तुओं को अस्पृश्य अपवित्र करार करना असंभव था। सामाजिक स्थिति चाहे जैसी रही हो इतना तो निश्चित है कि अध्ययन काल में शिल्पियों की संख्या में अपेक्षाकृत बढोत्तरी ही हो रही थी और उनकी आार्शिक स्थिति में पहले की अपेक्षा अवश्य ही सुधार हो रहा था यह बात बढ़इयों लोहारों गन्धियों जुलाहों सुनारों और धर्म व्यवसायियों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं के उपहार स्वरूप दी गयी अनेक गुफाओं स्तंभों आदि से प्रमाणित है। इसके अतिरिक्त उत्कीर्ण लेखें में रंगसाजों धातु और हाथी दांत के काम करने वालों जौहरियों मूर्तिकारों के भी कार्य दिखलाई पढ़ते है | 0




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