अलंकार महोदधि का आलोचनात्मक अध्ययन | Alankar Mahodadhi Ka Alochanatmak Adhayan

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Alankar Mahodadhi Ka Alochanatmak Adhayan by आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बताया है । यह ग्रन्थ रचयिता के कथमानुसार वि०्स० १२८२-१२२६ ई० मे रचा गया था । आचार्य के रचना स्थान का निर्देश कही भी उपलब्ध नही होता है । नरेन्द्रप्रभसूरि की अलकार महो द्धि के अतिरिक्त काकुत्स्थकेलि विवेकपादप विवेककलिका तथा दो वस्तुपाल प्रशस्ति भी पायी जाती है । इसके साथ ही गिरनार के वस्तुपाल के एक शिलालेख के श्लोक भी नरेन्द्रप्रभसूरि द्वारा रचित है । आचार्य के सुभाषित सग्रहो से ज्ञात होता है कि उनका कवि उपनाम विबुधचन्द्र था । काकुत्स्थकेलि एक नाटक था और उसका ग्रन्थमान १५०० श्लोक था। इसकी कोई प्रति अद्यावधि मिली नही है। सुभाषित और सूक्ति के रूप मे जैन मनीषियों की प्राकृत और सस्कृत मे अनेक रचनाएँ मिलती है। जैन विद्वानों ने सदाचार और लोकव्यवहार का उपदेश देने के लिए स्वतत्र रूप से अनेक सुभाषित पदों का निर्माण किया है। विवेक पादप और विवेक कलिका नैतिक सूक्ति काव्य के रूप मे जैन धार्मिक और जैन दार्शनिक विषयों के दो सुभाषित संग्रह है । विवेकपादप के अन्तिम पत्र के अक से ज्ञात होता है कि पूर्ण-ग्रंथ मे ४२१ श्लोक होने चाहिए परन्तु उपलब्ध पत्रो मे केवल २०९ श्लोक ही प्राप्त है । इसी प्रकार विवेक कलिका मे ११० श्लोक होने चाहिये परन्तु हस्तलिखित प्रति में मात्र ६९ ही मिलते है। विवेक पादप का उपलब्धाश सब अनुष्टुप छंद में है । इसकी प्रशस्ति के दो श्लोक ही भिन्न छद मे हैं एक शार्दूलविक्रीडित और दूसरा बसन्ततिलका । पक्षान्तर में दूसरा ग्रन्थ भिन्न-भिन्न वृत्तो का है । लेखक ने दोनो ही ग्रन्थों को जैनधार्मिक बनाने का प्रयास किया है परन्तु उसमें अधिकाश श्लोक शील सदाचार सद्भाव और मानवीय गुणों से ओत-प्रोत सरल और मर्मस्पर्शी हैं । उदाहरणार्थ मानवीय जीवन मे अनुकम्पा कितनी अमूल्य है उस पर उनका विचार सम्प्रेषणीय है-- दयादयितयाशुन्ये मनोलीलागृहे तृणाम्‌ । दानादिदूताहुतोडपि धर्मोयं नावतिष्ठते ॥ -विवेक पादफ इलोक २४ अपने गुरु की स्तुति में वह कहते हैं कि-- दिन न तपनं विना न झशिने बिना कोौमुदी श्रियो न सुकृतं विना न जागती विना विक्रमम्‌। कुल न तनयान्विना न समतां विना निरवृततिगुरूस्व_न विना रृणां भवति धर्मतत्वश्रुतति ॥ गुपन्व 1 विवेक कलिका स्लोक १२ १. तस्प गुरो प्रियशिष्य प्रभुनरेन्द्रम्रभ अभावाद्य | योडलजझ्ञरमहोदधिमकरोत_काकुत्स्थकेलिच ।-राजशेखरसूरि २. अलड्डारमहोद्धि के अन्तिम श्लोक में ग्रन्थ का रचनाकाल दिया गया है--नयन-वसु-सूर (१२८२) वर्षे निष्पन्नाया 0 । अजनि सहस्त्र चतुष्टयमनुष्ट भामुपरि पव्चशती ॥ इस श्लोक से प्रन्थ का प्रमाण ४५०० श्लोक ज्ञात होता (१२).




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