कल्याण मंदिर स्तोत्र | Kalyan-mandir Stotra

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Kalyan-mandir Stotra by पृथ्वी चन्द्र - Prithvi Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कल्याण मंदिर स्तोत्र १४ है नाथ यह ठीक है कि मैं जडबुद्धि हूँ झाप अनन्त उज्ज्जल गुणों के झाकर - खान हैं । तथापि मैं प्र म-वश शाप की स्तुति करने के लिए तैयार हो ही गया हूँ । यह ठीक है कि-समुद्र विशाल दे और बालक के दाथ बहुत छोटे हैं । फिर भी क्या बालक अपने नन्हे-नन्हे हाथों को फेल कर अपनी कल्पना के अनुसार समुद्र के विस्तार का वणन नहीं करता ? अवश्य करता है । टिप्पणी प्रश्न हो सकता है जब भगवान के अनन्त गुणों का केवल ज्ञानी भी वणुंन नहीं कर सकते तो फिर तुम तो चीज ही क्या हो? क्यों व्यथे ही अस्थाने प्रयास कर रहे हो ? आचाय ने प्रस्तुत पद्य में इसी प्रश्न का उत्तर दिया है और दिया है बहुत मनोहर कोई छोटा बालक समुद्र देख छाया । लोग पूछते हैं- कद्दो भई समुद्र कितना बड़ा है ? बालक भट ननहे-नन्हे हाथ फेला कर कहता है- इतना बड़ा । बालक का यह बणुन कया समुद्र का वणुन है ? नहीं । फिर भी बालक अपनी कल्पना के अनुसार महातिमद्दान को झणु बनाकर बणन करता है और पूछने वाले प्रसन्न होते हैं । आाचाय कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार यह मेरा भगवदूगुणों के वणन का प्रयास है । जैसा कुछ आता है




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