हिन्दू - परिवार - मीमांसा | Hindu Pariwar Mimansa

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श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

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हरिदत्त वेदालंकार - Haridatt Vedalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१६ ) कबीलों से स्त्रियां भगा कर लाने लगा ये उस की वैयक्तिक सम्पत्ति मानी गयीं और इससे परिवार प्रथा का श्रीगणेश हुआ । स्विस राभाजशास्तरी बेलोफन का विचार था कि स्त्रियां अपने स्वच्छन्द उपभोग और वेश्यावृत्ति से ऊब उठीं उन्होंने इसके विरुद्ध विद्रोह किया और इससे नियमबद्ध विवाह प्रथा वेग जन्म हुआ । मोर्गन द्वारा किये रेड इंडियनों की कुछ जातियों के सामाजिक अध्ययन के आधार पर कालंसावसं के सहयोगी एन्जेल्स ने यह कल्पना की कि मनुष्य में प्ुचारणावस्था ( 880] शिफ्ट ) में बेयक्तिक सम्पत्ति संग्रह करने की भावना उत्पन्न हुई । उस समय जहां पुरुषों ने पशुओं को धन समझ कर संचित किया वहां स्त्रियों को सम्पत्ति मान कर उन्हें भी बटोरना शुरू किया । आजकल अधिकांझ समाज-दशास्त्री उपयुक्त मनोरंजक कल्पनाओं को एऐति- हासिक तथ्य नहीं स्वीकार करते और न ही यह मानते हैं कि मानव समाज में परिवार जसी जटिल सामाजिक संस्था का विकास इस प्रकार की घिसी सरल और सावंभौम रीति से सर्वत्र एक जंसी अवस्थाओं में से गुजरते हुए हुआ हूँ ( पृ० ३३२ ) । किन्तु हिन्दू परिवार के उद्गम के सम्बन्ध में विचार करते हुए अनेक विद्वानों ने कामचार को उस की आदिम दशा माना है ( पृ० ३ ) और महाभारत के कुछ प्रभाणों के आधार पर इस की पुष्टि की है । प्रथम अध्याय में इन प्रमाणों की आलोचना करते हुए इस कल्पना को अमान्य ठहराया गया है ( पृ० ३-९ ) तथा यह बताया गया हूँ कि पकिचम में समाजशास्वीय नवीन अनुरन्धास और गवेषणा से कामचार की कल्पना सबंमान्य नहीं रही है (पृ० १०-१२) । इस के बाद इस अध्याय में हिन्दू परिवार के प्रयोजनों को स्पष्ट करते हुए परिवार विषयक हिन्दू आदर की तत्सम्बस्धी ईसाई आदर्श से रोचक तुलना की गयी है । दुसरे अध्याय में वैदिक युग से वत्तेमान काल तक के हिन्दू परिवार के विकास का प्रतिपादन हूँ । इस में संयुक्त हिन्दू परिवार पद्धति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि विभिन्न समयों में किन कारणों से संयुक्त कुटुम्ब- पद्धति पुष्ट होती रही है । पूर्व वैदिक युग में धर्म और कृपि-प्रधान आर्थिक जीवन इसके प्रधान पोषकतत्व थे (पृ० ३२-३८)। उत्तर वैदिक युग में संयक्त परिवार का विघट्न मनोवैज्ञानिक कारणों से तथा कुछ सामाजिक परिस्थितियों से प्रारम्भ हुआ किन्तु फिर भी हमारे समाज में संयुक्त परिवार की अक्षुण्ण परम्परा चलती रही । ६०० ई० पू० से ६०० ई० तक इसमें विघटन की प्रवृत्ति प्रबरू होने के कई संकेत मिलते हैं (पृ० ५३-३६) इनमें पिता के बंटवारा करने




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