साहित्य शास्त्र के प्रमुख - पक्ष | Sahitya Sastra Ke Pramukh - Paksh

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Sahitya Sastra Ke Pramukh - Paksh by डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी - Dr. Rammurti Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्यशाख्त्र के प्रमुख-पच्न रू भी गुण का नाम लेकर ्रलंकार के व्यापक रूप में ही उसे समेट लेते हैं श्र लोचनकार तथा झ्ानन्दबद्ध न दोनो ने रीति एवं गुण को अभिन्न साना भी है-- पहला मुखर है श्र दूसरा मौन। इस प्रकार व्यापक रूप में रीतिवाद एवं श्रलंकारवाद दो वाद नहीं है। दरडी ने भी जहाँ माग के मेदक तत्वों की चर्चा की है-वहाँ गुणों का नहीं प्रत्युत श्चिदलंक्रियाः को भी साधन बताया है तर अवशिष्ट अलकारो को तो उमरय माग॑ साधारण श्रललंकार कहा है। वामन सम्मत गुण श्र अलकार के मेद का खणुडन उद्भट जयरथ तथा स्वयं मम्मट ने भी अपने-अपने ग्रंथो में किया हैं । हो लोचनकार ने इन प्राचीनों के मत को उपस्थापित करते हुए. अवश्य एक को स्वरूप निष्ठ चारुता का तथा दूसरे को संघटनानिंष्ठ चारुता का हेतु मानकर अंतर स्पष्ट किया है इस प्रकार अलंकारवाद एवं रीतिवाद का पहला भेद जो. गुण .. एवं अलंकार के करती कर ३ हर भर दर स्व॒रूप मेद का शिथिल कर दिया गया हे । सरा भेद अलंकारबाद एवं रीतिवाद को यह बताया गया है कि झअलंकारवादी न कान्तमपि निभू ष॑ विभाति वनिताननमः के द्वारा कान्ति गुण की श्रपेक्षा भूषा को वनि- तानन की शोभा के लिए. श्धिक महत्व का मानते है और रीतिवादी ्रलंकार की साथंकता नारी गत युवावस्था जैसे गुण के रहने पर ही मानकर गुण को आपेक्षिक रूप से अधिक महत्त्र प्रदान करते है । पर यह श्रंतर सभी श्रलंकारवाद के तथा कथित चाय स्वीकार नहीं करते । दणडी ने समस्त शोभाकर धर्मों को अलंकार ही कहा हैं । प्रतीहारेदुराज को अअलकारवादी कहना निश्चित है--पर काव्यालंकार सार की टीका में प्रतीहारेदु राज ने अपने श्राशय का उपसंहार अलंकार की प्रधानता में जिस समारम्भ के साथ किया है उससे एक ओर उन शलंकारवादी कहना आवश्यक होता है ओर दूसरी ओर उन्होंने वामन को स्थल-स्थल पर उद्धुत करके अलंकार की अपेक्षा गुण को उत्कृष्ट ठहराकर उक्त मेदक तत्त्व का निरसन मी अर्थात्‌ कर दिया है । निष्कष यह कि शलंकार एवं रीति वाद के दोनो भेदकतत्व बहुत प्रौढ़ नही हैं । इस प्रकार अ्रहण की दृष्टि से श्रव्य एवं हश्य--उभयत्र रस की प्रतिष्ठा करनेवाले श्राचाय आनंदवद्ध न से पूर्व इन ल्लकार वादियों ने सौंदर्य तत्व पर जो कुछ विचार किया है उसका निष्कर्ष यह है कि सौंदर्य श्रद्धंझार ही है । जहाँ तक सौंदर्य के उपकरणु की बात है--भएमह ने शब्दतः शब्द गत एवं झथगत अनुप्रासोपमादि वाग्विकल्पों अथवा वक्ार्थ शब्दोक्ति तथा रस को ठदराढ ने समस्त काव्यशोमाकर धर्म यहाँ तक कि झव्य एवं दृश्य काव्यगत संघि संध्यंग बृत्ति लक्षण आदि को भी तथा दमन ने दोष दान तथा गुण एवं श्रलंकार के श्रादान को सौंदर्य का साधन कहा है ।




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