निबन्ध - रत्नाकर | Niband Ratnakar

Niband Ratnakar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१5 जी ली रची चि्पन्दि हि जध सपददप्ा ली नही सजा न लाला की सजी रजनी गपीनानो जा जनापपानाान रालीनापानाला नाना तनीानीनी ीनीएी गहीकाल तह बीच-बीच मे करतल ध्वनि से उनकी बातों का. समर्थन होता है । इस प्रकार उनका भाषण सफल आओ श्रोताओं का सन आनन्द विभोर हो जाता है किन्तु झाघुनिक लेखकगण ऐसा नही चाहते । वह कहते है कि पंडित नेहरू ( विषय ) को तो पहले बुला लिया जाए श्र फिर काड झादिं लगा कर मेदान साफ किया जाये भूमि ( या भूमिका ) लयार की जाये । यह कितना असंगत और श्रस्वासाविक हे । निष्कर्ष - निबन्ध की भूमिका मे विषय को पहले पहल उपस्थित नहीं करना चाहिये । क्योंकि ऐसा करने से उत्सुकता का नाश और झानन्द का भंग होता है । विषय को उपस्थित करने से पूर्व पाठक के मन में उस विषय के जानने सम कने और पढने की डत्सुकता जायूत करनो चाहिये । उसके लाने के लिये एक सुन्दर भूमि ( भूमिका ) तेयार करनी चाहिये । उस विषय के लिये झारम्भ ( भूसिका ) मे बड़ा प्रचार काना चाहिये विज्ञापन करके उसको श्रभावशाली और सहत्तवदूर्ण सिद्ध करना चाहिए । भ्रूसिका में ऐसी बाते लिखनी चाहियें जिन्दे पढ़ कर पाठक को अनुभव हो कि विषय बहुत ही सहत्वपूर्ण और आवश्यक है । विषय की महत्ता और झावश्यकता को जल्द लाने के लिये किसी बड़े भारी प्रयोजन ( जैसे झानन्द की कामना सुख की सहज झमिलाषा शान्ति स्थापना रोटी का प्रश्न झादि ) को रख कर झपने विषय को उस प्रयोजन की प्राप्ति का एक मात्र सावन घोषित कर देना चाहिये । ऐसा करने से विषय का उपयोगी और महत्त्वपूर्ण होन। सिद्ध हो जाता दै । उदाहरण के लिए यदि विद्या पर निबन्ध लिखना है तो यू नहीं लिखना चाहिये कि विद्या बडी झ्च्छी वस्तु है । बिद्या पढ़ने से मनुष्य मनुष्य कहलाता है । पशु झर मजुष्य में यही तो झ्रन्तर है कि सनुष्य विद्या सीखता है । विद्याविद्दीन मनुष्य तो पशु के समान है । झादि बच्कि इसके विपरीत विद्या का नास पहले न लेकर उसका सहच््व शप्रसाणित करना चाहिये । जैसे-- संसार के सभी प्राणी द्ानन्दपूवक जीवन बित्ाना चाहते हैं । जिस किसी को देखिए वह उसी झानन्द्‌ को प्राप्त करने के लिए सिर तोड़ परिश्रस कर रहा दे । कोई बेचारा कड़ाके की सर्दी में ठिठुर कर हल चल। रहा है तो




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