मनुष्या नन्द | Manushyananad

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Manushyananad by पाण्डेय बेचन शर्मा - Pandey Bechan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनुष्या नन्दे ११ इच्छाओं की--पूर्ति करता रहा । तुम संसार के अपने उस मित्र के सामने झूठ बोल रदे हो जिससे बड़ा तुम्हारा हित-चिन्तक कोई हो ही नहीं सकता । ज़रा आइने में अपना जा कर देखो तुम्द्दारी आँखों में लिखा हे तुम्हारे मुँह पर छपा है--तुम भ्रूठ बोलते हो । चौक नहीं तुम दुर्गाकुण्ड जा रहे दो । पवित्र वायु-सेवन करने नद्दीं किसी ग़्ररीब की लड़की की इज्जत पर अपनी बेशर्मी की परछाइ डालने जा रहे हो क्यो ? आंखें न भुकाइये बाबू साइब डाँटकर छापने बाप से कह्िये-तू भूठ बोलता हे । सचमुच घनश्याम जी का चेहरा उतर गया । सर झुक गया । मगर यह सब हुआ केवल क्षण-भनर के लिए । तुरन्त ही मानों उसने अपने को पिता के विरुद्ध संभाला | कुछ खीभ्या भी-- अब आप ऐसा भी करने लगे ? इमारे पीछे छिप कर चोरी से हमारी बातें सुनते हैं? खेर मुभे इसकी परवा नहीं +हाँ में - झूठ बोलता था -स्वीकार करता हूँ--चौक नहीं में दुगोकुण्ड रहा हूँ--आओर जा रहा हूँ रधिया भंगिन को देखने । फिर ? मेरी इच्छा में ख़राब दी सही में पातकी ही सही आप तो पुर्यात्मा हैं--बने रहिये । में इन बातों को नापसन्द करता हूँ । पर में तो पसन्द करता हूँ । हि यह मले छाद्मीयत के बाहर दे । तुम्हारा ब्याह हो गया है । तुम्द्दारी स्त्री घर में दे । व्याद्द का उत्तरदायित्व होता है । ऐसे ही काम करने थे तो ब्याह ही क्यों किया ? दुनिया में बहुत से लोग ऐसा ही करते आाये हैं और करते जा रहे हैं । श्ञाप-से साघु-मद्दात्मा बहुत नहीं होते । आप इस बारे में मुक से छुछ न कहें । में कुछ न सुनूँ गा । में बच्चा नहीं । जो मुनासिव समभकता हूँ करता हूँ। सुभे अपने उत्तरदायित्व का खूब खयाल हे ।




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