समकालीन हिंदी कविता अज्ञेय और मुक्तिबोध के संदर्भ में | Samkalin Hindi Kavita Agyey Aur Muktibodh Ke Sangdarth Me

Samkalin Hindi Kavita Agyey Aur Muktibodh Ke Sangdarth Me by शशि शर्मा - Shashi Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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14 1939 से ही छायावादी आदशंवादी भ्रूमि को वेचारिक दृष्टि से त्याग रहे थे । उनका सबसे महत्त्वपूर्ण विरोध इस बात को लेकर था कि छायाव।द ने अथ॑भूमि को संकुचित कर दिया है । छायावादी मनोदशा वास्तविक जीवन का प्रति- निधित्व नहीं करती इसलिए उसमें जिन्दगी को असलियत लापता है। यही वह मुल प्रक्रिः थी जो उस समय छायावाद के विरुद्ध को गयी थी । अतः प्रगतिवाद की घारा छायावाद के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप तो आई और उन वायवीय आदर्शों के खिलाफ भी जो मनुष्य के जीवन सम्बन्धी समस्याओं पर विचार नहीं करते । हिन्दी साहित्य के लिए 1935 से 1940 तक का समय संक्रमण का काल है । छायावाद की अन्तिम उपलब्धि कामायनी का प्रकाशन 1936 मे हुआ और निरालाजी की वह तोड़ती पत्थर रचना भी सन्‌ 1935 में प्रकाशित हुई । इसके साथ कवि पंतजी ने युगान्त घोषणा कर दी कुछ अपवादों को छोड़कर छायावाद के सभी कवि मावसंवाद से प्रभावित हुए थे । यहां तक कि छायावादी काव्यघारा को कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी कहा -- छायावादी काव्य व्यष्टि- गत की समध्टिगत परीक्षा में अनुत्तीण रहा । अतः काव्यक्षेत्र में प्रतिक्रिया का आगमन अनिवाय्रं था और उसी के परिणामस्वरूप एक नवीन काव्यघारा एक नवीन काव्य-प्रवृुत्ति ने जन्म लिया जिसे प्रगतिवादी संज्ञा से अभिह्ति किया गया । सन्‌ 1934 में प्रगतिवाद का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है । खासतौर पर सन्‌ 1934 के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्षीय भाषण में जन-प्रिय साहित्यकार प्रेमचन्द जी साम्यवाद का समथेंन करते दिखाई देते हैं। जनवरी 1934 को जागरण मे कहा गया कि-- साम्यवाद का विरोध तो वहे करता है जो दूसरों से ज्यादा सुख भोगना चाहता है जो दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है । जो अपने को दूसरों के बराबर समझता है जो अपने में सुर्खाब के पर लगा हुआ नहीं देखता जो समदर्णी है उसे साम्यवाद से विरोध क्यों होने लगा । ? उन्होंने रसवादी आनन्दवादी साहित्य की कड़ी आलोचना की और उच्च-चितन स्वा- धीनता का भाव संघर्ष और बेचेनी उत्पन्न करने वाले साहित्य के सृजन का उद्घोष किया । इसीलिए उनके भाषण को ऐतिहासिक महत्व प्राप्त है । सन्‌ 1935 में कलकत्ता में आयोजित इस संघ के दूसर अधिवेशन के अध्यक्ष रवीन्द्रनाथ टगोर थे । उन्होंने साहित्यकार से अपेक्षा की कि-- वह साहित्य में अन्ध परम्पराओं की जगह वज्ञानिक बुद्धिवाद का समावेश करेगा और सारे देश में क्रान्ति की भावना के विकास में सहायता पहुंचायेगा । वह प्रतिक्रियावादी प्रवत्तियों का साहसपूर्वेक विरोध करेगा जो साम्प्रदायिक जाति दप तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य की भावना को प्रतिबिस्बित करती हो । संघ का तीसरा अधिवेशन डॉ० गलीम की अध्यक्षता में सन 1942 में




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