समकालीन हिंदी कविता अज्ञेय और मुक्तिबोध के संदर्भ में | Samkalin Hindi Kavita Agyey Aur Muktibodh Ke Sangdarth Me
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20.12 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)14 1939 से ही छायावादी आदशंवादी भ्रूमि को वेचारिक दृष्टि से त्याग रहे थे । उनका सबसे महत्त्वपूर्ण विरोध इस बात को लेकर था कि छायाव।द ने अथ॑भूमि को संकुचित कर दिया है । छायावादी मनोदशा वास्तविक जीवन का प्रति- निधित्व नहीं करती इसलिए उसमें जिन्दगी को असलियत लापता है। यही वह मुल प्रक्रिः थी जो उस समय छायावाद के विरुद्ध को गयी थी । अतः प्रगतिवाद की घारा छायावाद के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप तो आई और उन वायवीय आदर्शों के खिलाफ भी जो मनुष्य के जीवन सम्बन्धी समस्याओं पर विचार नहीं करते । हिन्दी साहित्य के लिए 1935 से 1940 तक का समय संक्रमण का काल है । छायावाद की अन्तिम उपलब्धि कामायनी का प्रकाशन 1936 मे हुआ और निरालाजी की वह तोड़ती पत्थर रचना भी सन् 1935 में प्रकाशित हुई । इसके साथ कवि पंतजी ने युगान्त घोषणा कर दी कुछ अपवादों को छोड़कर छायावाद के सभी कवि मावसंवाद से प्रभावित हुए थे । यहां तक कि छायावादी काव्यघारा को कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी कहा -- छायावादी काव्य व्यष्टि- गत की समध्टिगत परीक्षा में अनुत्तीण रहा । अतः काव्यक्षेत्र में प्रतिक्रिया का आगमन अनिवाय्रं था और उसी के परिणामस्वरूप एक नवीन काव्यघारा एक नवीन काव्य-प्रवृुत्ति ने जन्म लिया जिसे प्रगतिवादी संज्ञा से अभिह्ति किया गया । सन् 1934 में प्रगतिवाद का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है । खासतौर पर सन् 1934 के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्षीय भाषण में जन-प्रिय साहित्यकार प्रेमचन्द जी साम्यवाद का समथेंन करते दिखाई देते हैं। जनवरी 1934 को जागरण मे कहा गया कि-- साम्यवाद का विरोध तो वहे करता है जो दूसरों से ज्यादा सुख भोगना चाहता है जो दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है । जो अपने को दूसरों के बराबर समझता है जो अपने में सुर्खाब के पर लगा हुआ नहीं देखता जो समदर्णी है उसे साम्यवाद से विरोध क्यों होने लगा । ? उन्होंने रसवादी आनन्दवादी साहित्य की कड़ी आलोचना की और उच्च-चितन स्वा- धीनता का भाव संघर्ष और बेचेनी उत्पन्न करने वाले साहित्य के सृजन का उद्घोष किया । इसीलिए उनके भाषण को ऐतिहासिक महत्व प्राप्त है । सन् 1935 में कलकत्ता में आयोजित इस संघ के दूसर अधिवेशन के अध्यक्ष रवीन्द्रनाथ टगोर थे । उन्होंने साहित्यकार से अपेक्षा की कि-- वह साहित्य में अन्ध परम्पराओं की जगह वज्ञानिक बुद्धिवाद का समावेश करेगा और सारे देश में क्रान्ति की भावना के विकास में सहायता पहुंचायेगा । वह प्रतिक्रियावादी प्रवत्तियों का साहसपूर्वेक विरोध करेगा जो साम्प्रदायिक जाति दप तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य की भावना को प्रतिबिस्बित करती हो । संघ का तीसरा अधिवेशन डॉ० गलीम की अध्यक्षता में सन 1942 में
User Reviews
No Reviews | Add Yours...