प्राचीन भारत | Prachin Bharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टे माचोन भारत ३म वर्ष १म संख्या दल्षिण-भारत में आयुर्वेद । ऐसा रद्दा जाता है कि अगस्थ-मुनि ने दक्षिण भारत में आयुर्वेद का प्रचार किया था । आयुर्वेद के साथ हो साथ सिद्ध-सम्प्रशय अथवा रस-बेद्य-सम्प्रशय का सिद्धान्त भी वहां तामिल भाषा में प्रचार कया गया था इसी लिये वहा सिद्ध-सिद्धान्त आयुवद का प्रतिद्रन्दी-सरुप आ खड़ा हुआ है।. पुल्स्य प्यूहमणि पुलिपाणि आदि प्रायः ३०-४०. सिद्-आचायी के भथ आज भी तामिल भाषा में लिखित उपलब्ध हैं। दक्षिग में वसवराज विज्ञानेघर पूज्यपाद मंगराज मन्यानभैरव आदि आचायी के संस्कृत प्रथ भी पाये जाते हैं । उनमें से वसबराज आदि लिखित दो एक प्रथो का हिंदी में भी अनुवाद किया गया है । मलावार तथा काचोन श्रावणकार आदि प्रदेशों में विष-चिकित्सा पर कई एक श्रथ केरल तथा संस्कत-मिश्र भाषा केरल में पाये जाते है ।. उनमें से लक्षगासत उटीद उत्पल हरमं खला नारायगीय कालवज् काल्वचन ज्येस्निका तथा प्रयोग सुयय आईि श्र थ विशेष प्रसिद्ध हैं । प्राचीन आयुर्वेद में शानोत्कषे का परिचय । प्राचीन काल में आयुबद के प्रयेक अग में किंतनी उन्नति हुई थी इस पर नीचे विचार किया जाता है -- उन दिनों में यह नियम था कि बिना शारीर-विद्या सौखे कोई चिकित्सा नद्दी कर सकता अतएव दात्य-तांत्रिक तथा. काय-चिकिसक दोनों को ही. शरीर-विद्या सीखनी पड़ती थी ।. इसोलिये चरक में लिखा है -- शरीर सब था स्व स्व दा वे दये। भिषका । आयुवदं स कतन्येन व दे लेकसुखप्रश्मू ॥ केवल चरक तथा सुश्रुत ही क्यों बंद बेदांग और यहां तक कि धर्मशाख्ों में तथा दुराणों में भी शरीर-बिद्या पर बहुत कुछ दिया हुआ है। इससे यही सिद्ध होता है कि उन दिनों में एक साधारण व्यक्ति भी कुछ न कुछ शरीर-विद्या जानता था । प्रश्न यदद उठता है कि भारतवर्ष के बाहर प्राचीन काल में शरीर-विद्या को क्या अवस्था थी १. डा० पुश्मैन ( 107. 05८80 ) ने पाइ८0प 0 66031 व त८५(0प में मप्यपकाल में शीीर-विया की अवस्था पर लिखा है। उनका कहना है 01550 00 1 (9 प्रप्ा0क11 5पुडटा जा उए पट सिल्8 एटा पसं€5 पी ध प्रतततीह 8६5. ०0१00586 प्र उ््रां०घ5 8प्त फ०प081 णावकावककट्टड 6 2150 0५ 80021 फाट|ंपरठाट९5 अर्थात्‌ यूरोप के मप्यकाल में मुर्दे की चीर-फाड़ करना धार्मिक राजनैतिक यहाँ तक कि सामाजिक नियमों के बिंदद्ध था ।




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