श्री राम चरित मानस विजया टीका भाग 1 | Shri Ramcharit Mans Vijaya Teeka Bhag 1

Shri Ramcharit Mans Vijaya Teeka Bhag 1 by पं. विजयानन्द त्रिपाठी - Pt. Vijayanand Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीयुरवे नम प्रस्तावना कविकुलचूडामणि मक्ताग्रगण्य महात्मा गोस्वामी तुलसीदासजी वे रामचरितमानस से जो उपकार जमता का हो रहा है. वह किसी से छिपा नही है । यह ऐसा भद्धुत ग्रन्थ है दि एक बच्चा भा उस आनन्द से गान करता है और उसे समझने में अच्छे बुद्धिमाद्‌ की मो बुद्धि चक्कर खाने लगती है। एक से एक महात्माओ ने विद्वानों ने उस पर टीकाएँ छिखी हूँ। फिर भी अन्य महातुमावों को उस पर गयी टीका लिखने की भावश्यकता माउूम पड़ी । कबिवर केशवदास की यह उक्ति कि वानी जगरानी की उंदारता वखानों कहा । कहि मद हाप्यो नहिं कहि काट पे गई। पति बरन्यों चारमुख प्रूत वरन्यो पाँच मुख लाती वरन्यो पट्मुख तदपि नई नई । मुझे तो श्रीगोस्वामीजी वी ही वाणी पर प्रुणत घटती- सी दिखायी पड़ती है । मुझे बचपन से श्रीरामचरितमानस से प्रेम है। ढठती अवस्था मे जब अपने जीवन को सफल बनाने का विचार मन मे उठा तो सिवा श्रीगोस्वामीजी के शरण ग्रहण करने बे दूसरा उपाय दिखायी नहीं पड़ा । कोई तीस बप से मैं अपने निवासस्थान पर ही मानस का प्रवचन करता हें । रिटायडं जज वावू वैजनाथ प्रसादजी तथा कविकेस्‍जजी आदि श्राताओं की भर से दडा आप हुआ कि मैं भी मानस पर टीका लिखूं। मेरे प्रिय शिप्य महन्त बॉकेराम मिथ अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदासजी काशी तो इस तरह पीछे पढे कि मुझे लिखना आरम्भ कर दैना ही पढ़ा । अन्तर्यामी की छूपा से टीका पूरी हुई । परन्तु पाठक इसम किसी चमत्कारिक अर्थ अद्भुत-अख्भुत भाव या. विचित्र कथानकी की आशा न कर । इसम विशेषता इतनी ही है कि ग्रन्थ से ग्रत्य के लगाने की चेष्टा की गयी है । जहाँ आवश्यकता जान पडी वहाँ अन्य ग्रन्या से भी प्रमाण उद्धृत बिये गय हैं। जहाँ तब हो सका पूज्यपाद ग्रन्थकार के आशय के अनुसरण का प्रयत्न किया गया है । अथ करने मे वाक्यो की सगति पर विशेष ध्यान रक्खा गया है । इसम मुल मुझसे चाहि जैसी हो गयी हो. पर जानवूशकर पक्षपात तथा लोकरब्जनादि कारणों से मैंने अर्थ का अनर्थ नहीं होने दिया है । जो जा विचार गुरुजनो और महात्माओ से मुझे प्राप्त हुए हैं था ग्रन्थ के मनन करने में जो नये-नये विचार मेरे मन में उठे हैं उन सबो को निर्मीकता से यधासाध्य प्रकट कर देना मैंने अपना कतंब्य समझा है । अपने गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर मुझे इस ग्रन्थ के पूरे होने की कोई आशा न थी । इसलिए बीच सम मैंने वई छोटी-छोटी पुस्तक लिखकर अपने विचारों और भावी को स्ंसाधारण के सामने रखा और कहना नहीं होगा कि जनता में उसका स्वागत किया जिससे मरा उत्साह बढ़ता गया । वस्तुत पाल मिमी और हितचिन्तको के प्रोत्साहन से ही इस कार्य का सम्पादन हो सका । लौकिव हि से तो यही वात है । परन्तु मेरा हुदय




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