काव्य एवं काव्य - रूप | Kavya Avam Kavya Roop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काब्य/ 11 उसकी महत्ता परात्तः सुन्ाय में झधिक है। फिर यह भी तथ्य है कि कवि का स्वान्त मूलतः परान्तः या लोकान्त ही होता हूँ भन्यया वह उच्चकोटि की कविता का प्रणता नहीं हो सकता । हम पाश्चात्य कलावादियों के इस तक को स्वीकार करने में श्रसमर्थ है कि कवि की श्रमिव्यल्जना जब सफल हो जाती हैं तब उसे समाज से क्या लेना देना । सफल झभिव्यक्ति ही कवि का चरम लक्ष्य है। प्रसादजी की परिभाषा में ऐसी कोई बात नहीं हैं क्योंकि प्रसादजी की परिभाषा सत्य को स्वीकार करके चलती है । प्रसादजी के झनुसार काव्य शझात्मा की संकल्पाह्मक अनुभूति है जिसका सम्बन्ध विश्लेपश विकटप या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेम रचनात्मक ज्ञान धारा है। श्रात्मा की मनन-शक्ति की वह श्रसाधारण भवस्था जी श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा प्रहण कर लेती है काव्य में संकत्पात्मक मूल भनुभूति कही जा सकती है 1 इस परिभाषा में प्रसादजी के तीन शब्द द्रष्टव्य है--(1) संकल्पात्मक अनुभूति (2) श्रेयमयी श्रौर (39 प्रेय । संकल्पारमक शनुभूति की व्यास्था स्वयं प्रसादजी ने कर दी हैं। इसी व्याख्या में श्रेय को सत्य घर प्रेय की सौत्दयं कहा है। अर्थादु सत्य को सुन्दर बना कर काव्य की रचना की जाती है। यह दोनों का समन्वय नही है बल्कि प्रसादजी के भ्रनुसार सत्य के मूल में सौन्दर्य स्पतः विद्यमान रहता है । श्रावश्यकता है उसे ग्रहण करने की । उसका प्रहण श्रात्मा को संकल्पात्मक झनुभूति करती है। कवि उस चारुत्व को ग्रहण कर उसकी श्रमिव्यक्ति करता है. श्रौर पाठक उसका ग्रहण कर आस्वादन करता है । भरत यह कहना कि उक्त परिभाषा में पाठक श्रौर अभिव्यक्ति को गीण रखा गया है उचित नहीं है । वस्तुत प्रसादजी की मकरपात्मक श्रनुभूति सहूदय सामाजिक का ही भ्रमूर्त रूप है। सामाजिक भी सहदय श्रपनी संकल्पात्मक श्रनुभूति के बल पर ही होता है श्रन्यया सामान्य झये में तो हृदय सभी के होता है किन्तु पारिभापिक श्रर्थ में उन्हें सहुदय नही कहा जा सकता । श्रतः स्पष्ट है कि प्रसादजी भी कविता में शुवलजी की तरह रागात्मकता को हो प्रधानता देते है । उपर्यक्त सभी परिभाषाओं का समन्वय करते हुए श्री गुलावराय का कथन है कि काव्य संसार के प्रति कवि की भाव-प्रधान (किन्तु शुद्ध वंयक्तिक सम्बन्धो से मुक्त) मानसिक प्रतिक्रिया की कल्पना के ढँचे में ढुली हुई श्रेय की प्रेय रूपा प्रभावा- त्पादक श्रभिव्यक्ति है । इस परिभाषा में श्री गुलावराय ने यद्यपि उन सभी तहवों का समावेश करने का प्रयत्न किया है जिन्हें किसी न किसी प्रव॑वर्ती श्राचार्य ने किसी से किसी रूंप में ग्रहण किया है तथापि उन तत्वों का भली-भाँति संयुम्फन भाषा में नहीं हो पाया । दूसरे जहाँ तक मैं समकता हूं मानसिक प्रतिक्रियाएं तो होती ही भाव- प्रधान है। ्रतः उनके साथ भाव-प्रधान शब्द का प्रयोग झनावश्यक-सा प्रतीत होता हू। यदि इसी प्रसद्धू में पाश्चात्य मनीपियों के विधारों का भी विश्लेपण कर 1. स्व० जयशंकर प्रसाद काव्य कला तथा श्रन्य निवन्ध पृष्ठ 38




User Reviews

  • ankita

    at 2020-03-23 03:57:34
    Rated : 9.4 out of 10 stars.
    Very nice
  • Akhil

    at 2020-03-22 18:01:18
    Rated : 9.4 out of 10 stars.
    "second to none"
    Loved this...Big fan of writer
  • Aprajita

    at 2020-03-22 15:09:18
    Rated : 9.4 out of 10 stars.
    Very nice ?
  • Yagyesh

    at 2020-03-22 14:24:34
    Rated : 9.4 out of 10 stars.
    "wonderful content"
  • Vidit

    at 2020-03-22 14:12:17
    Rated : 9.4 out of 10 stars.
    "Interesting content. "
    Excellent and interesting read for anyone interested in poetry.
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