सीता | Sita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इद्य 3 पहला अंक ७ है जिनकी सहनशीछता ऐ्थ्वीके समान अटल है जिनका पराक्रम और तेज तूर्यके समान अनिवार्य है जिनकी कोमलता कमछ- कुसुमके समान है उन लक्ष्मणके बारेमें ऐसी दिछगी करना उचित नहीं । उन्होंने किशोर अवस्थामें ही राजमहलके भोग-विठासोंको तुच्छ समझकर अपनी इच्छासे आर्यपुत्रके साथ वनवासमें रहकर अनेक कष्ट सहे हैं । उन्होंने पुत्रके समान खाना-पीना-सोना छोड़ मेरी और अपने बड़े भाईकी निरन्तर सेवा की है। उन्होंने जिस ऋणके बन्धनमें हमें बाघ रक््खा है उससे हम जन्म-भर उक्रण नहीं हो सकते । वह ऋणका बन्धन ऐसा मधुर और प्यारा है कि मैं उससे छुटकारा पाना भी नहीं चाहती । जितना ही सोचती हूँ उतना ही मुग्ध होती हूँ हर्षसे रोमाश्र हो आता है । उस महत्वके चरम आदर्शको जब मैं देखती हूँ तब मेरी ऐसी ही दशा हो जाती है। जिनकी बड़ाई सौ मुँहसे सो बरस तक करनेपर भी चुक नहीं सकती उन लक्ष्मणका परिह्दास किस मैंहसे करती हो बहन ? उर्भिला--( स्वगगत ) सती बहन प्यारी बहन तुम्हारी यह बात सुनकर तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह और भक्ति सौगुनी बढ़ गईं सचमुच मेरे स्वामी धन्य हैं मैं उनके पैरके अँगूठेके योग्य भी नहीं हूँ श्रुतकीर्ति--मैं जानती हूँ वे ऐसी दिछगी तो करेंगी ही। अयो- ध्याकी राजरानी थीं स्वामीके साथ सदा सुखसे रहती थीं । उन्हें सीताकी तरह चौदह वर्षतक बनवासके कष्ट तो भोगने ही नहीं पड़े--उर्मिलाकी तरह चौदह वर्ष तक विरहकी दारुण व्यथा तो सहनी ही नहीं पड़ी । माण्डवी--( गंभीर भावते ) यह क्या मेरा दोष था १ सच कहो-- सच कहो कया मैंने रानी होना चाहा था युवराज रामचन्द्र
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