अवतार - कथांक | Avatar Kathank

Avatar Kathank  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अवतार-कथाडू _ अवतार अवतार कंथाड् अवनार-यथाडई अवतार-क्थाड़ अववार-कथाईू अवतार-कंधाई अवतार-कथाऊू * अवतार कथाइ जे अवतार-कथाड़*अवतारे- अवतार कथा अवरार क्याड् !-कर£ ७ अवतार कयाडू अवतार कथा अथतार कथाड़ _अवतार-कथाडू अवतार-क्थाट्ट *अवतार-कथाड़ अवतार-कयाडड अवतार-कथाड़ अवतार-कथाड अवतार 'चवतार-कथाड़अवतार-कथाडू _अवतार- हिरण्यगर्भ, समवर्तताये ' [ भगवान्‌ ब्रह्माजीका अवतरण 3 अचिन्त्य परमेश्रकी अतर्क्य लीलासे त्रिगुणात्मक प्रकृतिमें 'जब सृष्टि-प्रवाह होता है, उस समय रजागुणसे प्रेरित व ही 'पर्रह्मसगुण होकर सर्वप्रथम प्रजापति हिरण्यगर्भके रूपम प्रक्रट होते हैं और वे ही अखिल प्राणि-समुदायक स्वामी हैं-- हिरण्यगर्भ समवर्तताये भूतस्य जात पत्रिक आसीत्‌। (यजुर्वेद २३1१) वेदाम सृष्टिकर्ताकं लिय विश्वकर्मन, ब्रह्मणस्पति, हिरण्यगर्भ, ब्रह्मा तथा प्रजापति आदि नाम आये हैं। प्रत्येक कल्पकी सृष्टि-प्रक्रियाम सर्वप्रथम आविर्भाव ब्रह्माजीका ही होता है। औपनिपदश्रुतिम बताया गया है कि हिरण्यगर्भ 'ब्रह्माजीका प्राकस्य सर्वप्रथम हुआ और वे ही इस विश्वके रचयिता तथा इसकी रक्षा करनेवाले हैं-- ब्रह्मा देवाना प्रथम सम्बभूव विश्वस्थ कतां भुवनस्य गोप्ता। (मुण्डक० १११११) ब्रह्माजीका अवतरण किससे, कैस और कब हुआ-- इस सम्बन्धम पुराणाम एक रोचक कथा प्राप्त होती है, जिसमे बताया गया है कि महाप्रलयके बाद कालात्मिका शक्तिको अपने शरीरम निविष्ट कर भगवान्‌ नारायण दीर्घकालतक योगनिद्राम॑ निमग्र रहे। महाप्रलयकी अवधि समाप्त हौनेपर उनके नेत्र उन्मीलित हुए और सभी गुणाका आश्रय लेकर चे प्रबुद्ध हुए। उसी समय उनकी नाभिसे एक दिव्य कमल प्रकट हुआ जिसकी कर्णिकाओक ऊपर स्वयम्भू ब्रह्मा जा सम्पूर्ण ज्ञामय और वदरूप कहे गये हैं, प्रकट होकर दिखायी पडे। उन्हाने शून्यम अपने चारो और नेत्राको घुमा- 'घुमाकर देखना प्रारम्भ किया । इसी 'उत्सुकतामे देखनेकी चेष्टा 'करनेसे चारा दिशाआम उनके चार मुख प्रकट हो गये-- परिक्रपनू व्योधि . विदृत्तनेत्र- श्रत्वारि . लेभेजनुदिशि . मुखानि॥ (श्रीमद्धा० ३1८1 १६) कितु उन्हे कुछ भी दिखलायी नहीं पडा और उन्हे यह चिन्ता हुई कि इस नाभिकमलम वैठा हुआ मैं कौन हूँ और कहाँसे आया हूँ तथा यह कमल भी कहाँसे निकला है । बहुत चिन्तन करनेपर और दीर्धकालतक तप करनेके बाद उन्होंने उन परम पुरुषके दर्शन किये, जिन्ह पहले कभी नहीं देखा था और जो मृणालगौर शषशय्यापर सो रहे थे तथा जिनके शरीरसे महानालमणिको लख्ित करनेवाली तीव्र प्रकाशमयी छय दसा दिशाआको प्रकाशित कर रही थी । ब्रह्माजीको इससे बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने उन भगवान्‌ विष्णुका सम्पूर्ण विश्वका तथा अपना भी मूल समझकर उनकी दिव्य स्तुति की । भगवानने अपनी प्रसनता व्यक्तकर उनसे कहा कि अब आपको चिन्ता 'करनेकी आवश्यकता नहीं है, आप तप शक्तिसे सम्पन्न हो गये हैं और आपको मेरा अनुग्रह भी प्राप्त है। अब आप सृष्टि 'करनेका प्रयत्र कीजिये । आपको अबाधित सफलता प्राप्त होगी । भगवान्‌ विष्णुकी प्रेरणासे सरस्वती देवीने ब्रह्माजीके हृदयें प्रविष्ट होकर उनके चारो मुखोसे उपवेद और अड्ञॉसहित चारो वेदोका उन्हे ज्ञान कराया। पुन उन्होंने सृष्टि-विस्तारके लिये सनकादि चार मानस-पुत्रेंकि बाद मर्णीचि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अमिरा, भूगु, वसिष्ट तथा दक्ष आदि मानस-पुत्नोको उत्पन्न किया और आगे स्वायम्भुवादि मनु आदिसे सभी प्रकारकी सृष्टि होती गयी। इस कथानकसे स्पष्ट है कि सृष्टिके प्रारम्भम भगवान्‌, नारायणके नाभिकमलसे सर्वप्रथम ब्रह्माजीका प्राकटय हुआ।




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