कागज की नाव | Kagaz Ki Naav

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Kagaz Ki Naav by शैलेश भटियानी - Shailesh Bhatiyani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बागज थी नाव / १३ बात खरीद-फरोस्त की सामग्री हो गये हैं ? क्या प्रशासन सामाय जनों के प्रति कूरता की दृद तक लापरवाह होता गया है * साम्प्र- दायिकता का जददर और गहरे; और गहरे क्यो धघुनता जाता है * इस तरह के तमाम सवालों था एक ही जवाब है--इसलिये कि जिंत पर शूठ वो शूठ भर सच को संच बताने की जिम्मेदारी थी; वही अपनी कीमत लगवाकर; एवं तरफ हो गये । मगर कहूँ कि देश का बौद्धिक वर्ग ही समाज वे प्रति सबसे ज्यादा विश्वासघाती वर्ग है, तो क्या यदद झूठ होगा * विडम्बना तो है यह कि नो आधिक तौर पर जितना सुरक्षित, वद्दी इन सवालों पर सबसे अधिक गुमसुम है । उसे साफ दिखाई दे रहा है कि हम आखिर-आखिर किस सवप्राप्ठी अंधेरे के हवाले होने जा रहे हैं; लेकिन वह भी देश के पूजी- निवेशियों और राजनैतिक नेताओ की तरह इस पुरे इतमीनान मे जी रहा है कि-जगल की आाग जगल तक ही रहेगी ! समाज जगल नह्दी है । समाज को भाग के हवाले रखना ठीक नहीं । सबसे गहरी भाग भादमी के भीतर के अलाव में जलती बाई है। बड़े सन्नाटो और तानाशाह के हवामहल इसी भाग में राख हुए हैं । लैखक को आदिम॑-अग्ति का शान सबसे णरूरी है। उसे यह ध्यान जरूरी है कि इसकी सामाजिक साख वयो नष्ट हो गई। भार्खिर पया बात है कि लोगो ने उसे अपने ध्यान से ही उतार दिया बौर भाव लिया है कि हमारे सारे सरोबार सिर्फ राजनेताओं से जुडे हैं । लेखक का, समाज की मुख्यधारा से दूर, साहित्य और सस्कृत्ति के शोभा प्रतीको की हैसियत का भीवन ही उसवा सबसे दुखद मरण है। जिसके जीवित होने का “दसास समाज को नदी; वह लेखक जिंदा मुर्दो से बेहतर कुछ नहीं । गो लेखक समाज को फालतु हो चुका; गाँव के कुत्ते से गया-बीता है । बंगदाद के एक फवीर का वृत्तात कही पढ़ा था 1 ं वगदाद के किसी खलीफा ने ऐलाव करवा दिया. कि वह खुद हो




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