अस्तित्ववाद पक्ष और विपक्ष | Astitavwad Paksh Aur Vipaksh
श्रेणी : काव्य / Poetry, दार्शनिक / Philosophical
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.08 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पॉल रुबिचेक - Paul Rubichek
No Information available about पॉल रुबिचेक - Paul Rubichek
प्रभाकर माचवे - Prabhakar Maachve
No Information available about प्रभाकर माचवे - Prabhakar Maachve
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द् अत्तित्ववाद पक्ष भर विपक्ष मे एक है और अस्तित्ववाद हमे यह सिखलायेगा कि अनुभूति को प्रमाण के रूप में हमे स्वीकार करना होगा बयोकि अगर हम इस वात को स्वीकार नहीं करते कि हम शुभ और अशुभ सतु और असत् का स्वनन्व्र रुप से वरण करने मे समयं हैं हम अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी नही होते और इस प्रकार हम जो अनु- भव करते है उसे समझने में असमर्थ रहू जाते हैं । केवल वस्तुमिष्ठ रुप से सोचने से अनुभुतियों के सम्बन्ध मे विचार करने मे हमे सहायता नहीं मिल सकती अर्वयक्तिक रूप से वर्णित अनुसूतियाँ समझी नही जा सकती 1 अगर उदाहरण के लिए हमारे सामने शारीरिक एव मनोवैज्ञानिक रूप से पीडा की यथातथ्य वैज्ञानिक व्याप्या प्रस्तुत कर भी दी जाये जिसमे हमारे शरीर में घटने वाली समस्त प्रक्नियाएँ और तन्त्रिका प्रतिक्रियाएँ शामिल हो तो भी हमे वास्तविक सर्प से पीडा की जानकारी नही होगी जब तक कि हमे इसकी अवुभूत्ति प्राप्त न हो । और न हमें बाह्म-विचारण (विचार करने की एक रीति अर्थात् जो वस्तुनिष्ठ रूप मे वाहर से प्रत्येक वस्तु के निकट पहुँचता है) विश्वसनीय मूल्य ज्ञान प्रस्तुत करने में समर्थ होगा या इससे मूल्यों को समझने मे ही सहा- यता मिलेगी यह न तो उस चरम सत्य पर विचार कर सकता है जो हमारे हृढ विश्वासो का आवार है न कि शुभत्व या सौन्दर्य पर । क्योकि वैज्ञानिक ज्ञान को एकमाथ ज्ञान के रूप मे स्वीकार करने से ही बैयक्तिक निर्णय की भावइ्यकता पढ़ जाती है । नतिकता वाहर ही रह जाती है क्योकि जैसा मैंने अभी कह्दा है वरण और निर्णय की स्वतन्त्रता के बिना हम अपने कार्यों के प्रति उत्तरदायी नही होते और शुभत्व और नैतिकता का सम्पूर्ण सप्रत्ययन घ्वस्त हो जाता है। अगर मैं उत्तरदायी नहीं हूँ तो हत्या एक तथ्य मात्र रह जाती है जिसे उस समय तो रोकना चाहिए जब यह समाज के लिए हानिकर हो किन्तु जब यह समाज के लिए लाभदायक हो तो इसका प्रयोग करना चाहिए किन्तु इसे अपराध या पाप नहीं मानना चाहिए । यह कोई सैद्धान्तिक कथन नहीं है सभी सर्थसत्तात्मक राज्य इस सिद्धान्त का पालन करते है यह हमारे युग मे वास्तविक भयानक कार्यों का भाघार हो गया है । जब तक बाह्म-विचारण को ही काम मे लाया जाता है अनुभवानीत सत्ता भी अगभ्य रह जाती है क्योकि कसी भी मौलिक सन्दर्भ में क्यो प्रइन का कभी उत्तर नहीं दिया जा सकता । हत्या क्यो होती है क्रान्तियाँ बयो होती है या रोप के स्थिर आाघार क्यो हैं मनुष्य का अस्तित्व क्यो है? हम नहीं जानते हैं और न हम यही जानते है कि भौतिक
User Reviews
No Reviews | Add Yours...