ऋषिमण्डल - स्त्रोत्र | Rishimandal Stotra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ ऋषि मंद है 1 इस स्वोच में “* हीं ” को सुख्य माना गया हे जिसका यपन करते कहा है कि, ध्यायेत्सिताव्ज वक्रचान्तर्रवर्गीदलाप्को ॥ ऊँ? नमो अरिहताणमिति वर्णानमिक्रमात ॥१॥ मावाथ--सुख के अन्दर आठ कमल वाले खेत कमल का चिंतवन करे, और उसके आठों कमल में अन्लुक्रम से “ छ नमो अरिदन्ताणं ” के आएों अक्षरों को एक एक कमछ में अनुक्रम से स्थापित करे । कमल के भाग की केसरा पंक्ति को स्वरमय बनावे, और इन कमलों की कर्णिका को अग्त विंदु से विभ्वपित करे, उन कर्णिकाओं में से चन्द्रविम्व से गिरते हुवे मुख कलम से सश्वारित प्रभामंडल के मध्यमे 'विरानित चंद्र जैसे कान्ति बाछे माया वीज *' ही ” का 'चिंतदन करे । इस तरद चिंतदन करने के वाद कमर के पुप्प के पर्तों में अमण करते आकाश तल से सश्वारित मन की मलीनता का नाश करते हुवे अम्रत रस से झरते और ताछुरन्घ्र से निकलते हुवे आरकुटी के मध्य में शोभायमान तीनलोक में अर्चिंतनीय महात्म्य चाठे तेजोमय की तरद अदूभ्त एसे इस “ही ” का ध्यान किया जाय तो एकाग्रता पूदेक लय रूगाने दाले को दचन और मनकी भलीनता दुर करने पर शुत ज्ञान का मकाश दोता है ।




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