विष्णुपुराण का भारत | Vishnu Puran Ka Bharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शुद्ध फष्श स्वरूप को श्रीदरि कौस्तुममणि रूप में धारण करते हैं । अनल दाक्ति को श्रीवर्स के रूप में बुद्धिध्री को गदा के रूप मे, भूतों के कारण रॉजिस अहंकार को एंख के रूप में, साशध्विक महूंकार को वैंजयन्तीमाला के रुप में, शान कर कर्मेद्द्रिों को बाण करप में विष्णु धारण करते हैं। इस प्रकार विप्णुपुराण में वर्णित दिप्णु सर्वेशक्तिमान, मजजलमय, घरणागतताता, आर्ि- हर्ता और भत्तों के रदक है । उक्त विष्णु की लीला, अवतार एवं गायों का चित्रण इस पुराण में पार्या जाता हैं 1 अतः पाठक और श्रोता को विप्णु के स्मरण, कीर्तन आदि से मुख और धान्ति की प्रा होती है । आख्यान और मूर्य मे घुव, महा मगीरथ, जल, जमदमि, नहूंप, यमाति, यापुदेव, केसवर्ष, केंशिष्व पारिजातहरण मादि इस प्रकार के कथानक हैं, जिनमें तत्कालीन समाज का इतिवृत निर्दिति है। यथपि कथानकों की रूप अनिशपोक्तिपूर्ण है और प्रत्येक आश्यान को श्रद्धागम्प बनने के लिए देवी चमतकारों की भी योजना को गयी है, पर वास्तव में और सांस्कृतिक दृष्टि मे इन आस्पानों का मुश्य ब्यधिक है ! यहाँ हम उदाहरण के लिए दो चार कथांशों को कर उनका बधार्मक और मुत्यादुन उपस्थित करेगे १. के प्रथमार में प्रह्लाद का भाख्यान आम है। यह देस्पराज हिर्प्यकशिपु का पर्व था । हिरण्यकशिपु देव आर परा दाक्तियों का विरोधी था । घट अपने से अधिक हकिशाली संसार में शिंसी को नहीं मानता था । आरम्भ ये हो थां । जर्व हिरण्यकशिपु वो प्रद्धाद हो जा वर्ज्ञान हुआ तो वह अत्यन्त रु हुआ और उसने प्रह्माद से कहां कि तुम चेरे दाधुओं को आमन्त्रित नहीं कर सकते हो । यदि ऐसा करोगे, तो गुर इष्डित किंपां जाएगा । बालान्तर में प्रह्माद को घुक्ाचायं के यहाँ विद्याध्यपन के लिए भेजा गया 1 के दो पुर चे--पण्ड और अमर । पे दोनों यहाँ शिक्षक ये, अतः प्रद्धाद एवं मन्य राकषसों के छडरों को उपयोगी विषय पढ़ाया करते थे 1 प्रदूलाद अपना पाठ याद वें एके सुना दिया करता था । धमें- सम्दन्धी ब्यवहार उन दोनो को खटकता था, पर वे प्रद्धाद वो अपने उपदेशों से जिचतित करते थे अहम थे। जब वियाध्यमन समाप्त कर प्रद्लाद घर लौटा, «लाया 1 ६७-०४ [ के




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