भूषण ग्रंथावली | Bhushan Granthawali

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Bhushan Granthawali  by विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ २ ] नन-ससाज में अभिव्यंजन की ऐसी पद्धतियाँ, ठसके विकास के समय से ही प्रचलित हो नाती हैं । जब भागे चछकर जन-समाज की मापा सादित्य . का रूप घारण करती है भर उससे ननेकानेक परंथों का अलकार निर्माण होने लगता हैं तव विद्वान, समालोचक उन पद्- एक शैली है ख कि तियों का भी विदलेपण करते हैं भौर इस प्रकार की पद्ध- तियों का निरूपण होना भारंभ हो जाता है । उक्त कथन से स्पष्ट है कि जरंकार एक प्रकार की भावासिच्यंजन की दोली है । दोली का कोई अकग अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि भावों का नंगा रूप साहित्य के दायरे में नहीं आता । इस कारण यदि हम भावों को झारीरी माने तो शेली को उसके चस्त्रादि की उपमा नहीं दे सकते; क्योंकि भावों को झरीरी बनाने में दौली का ही विशेपतः प्राघान्य रददता है । इसलिए शैली उच्त दारीरी का श्नलसलाता हुआ बाहरी रूप है । अरंकारों को कुछ लोग कविता-कामिनी के आभूषण की उपमा देते हैं । पर .यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो पता चलेगा फि जिस प्रकार कविता-कामिनी के सूते शरीर से भाभूष्णों का अलग अस्तित्व नहीं है। उसी प्रकार अलंकारों का कविता से अछग अस्तित्व नहीं है.। यदि कामिनी के अंगों से लाथूषण अर्ण कर दिए जाये तो थी उसके सौंदर्य में घुटि नहीं आ सकती; पर भलंकारों को कविता से अलग करते ही उक्त सौंदय॑ नष्ट हो जायगा । अतः सादिव्य-संसार में कविता के साथ अलंकारों का. वही संबंध है, जो कामिनी और उसके सौंदर्य में पाया जाता है । हमारे दिचार से “हारादिवद्लंकारा' कहकर अलंकार का क्ेत्र बहुत सीमित्त कर दिया गया है । जो लोग भावों को सौंदर्य मानते हैं औौर जर्लकारों को 'दारादि' । वे भरछंकारों को उस स्थान से हटाना चाहते हैं, जो दस्तुतः उन्हें प्राप्ठ होना चाहिए । शावों को शरीरी कह सकते हैं शरीर का सॉंदयं नहीं कविता-कामिनी के रूपक में शब्दों को शरीर का ढाँचा--हाड़- सांसादि--मानना चाहिए और भावों को दारीरी । इसके पश्चात्‌ जलंकारों को सौंद्य मानने से ही रूपफ ठीक उतरेगा । भाचार्य वामन ने स्पष्ट 'सौंदर्य- मलंकार'' छिल्ना दै । वे अलंकार को व्यापक रूप में हो अहण करते हैं । परकाल में अलंकारों का रूप सीमित होने लगा था और 'हाराद्विदुलकारा:'




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