दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास | Dakshin Bharat Hindi Prachar Sabha Mdras

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेखकों की प्रतिभा से प्रभावित है।. साहित्य सेवा में राष्ट्रोयपता अथवा नागरिकता गोण है । जन्म की भौगोलिक आकश्मिकता का साहित्य- सृप्टि से कोई सम्पन्ध नहीं है; भाषा का जदश्य है 1 क्षेत्र का भारोपण साहित्येतर उद्देश्यों से होता हु। इससे न साहित्य का परिमाण बढ़ता है, ने गुण ही । यह एक अनावश्यक देशाभिमान है, जिससे साहित्य को कोई सतिरिवत शवित नहीं मिलती ।. क्षेत्र कुछ भी हो, भाषा कुछ भाधार- भूत छिंदुधान्तो दुबारा अदुशातित है, और वे सिदुधास्त भिल-मिल क्षेत्रों मे भिसत नहीं हो जाते 1 यहीं बात हिंदी की है। हिन्दी किसी भी तरह बोली जाती हो, परन्तु लिदी एक हो सरह जाती है--व्याकरण का माघार सभी के लिए एक-सा है। ओर शेली सामूहिक अभिव्यविति नहीं है, वहू व्यवितिगत अभिव्यर्ति है, अत इसका क्षेत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है । अहि्दी क्षेत्र की लिखित हिन्दी, हिन्दी क्षेत्र की लिखित हिन्दी से मिन्‍न नहीं है । लिखित हिन्दी के लिए तो हिन्दी बोर हि्दीतर का विभाजन नितान्त युक्तिहीन-सा प्रतीत होता है | भाषा पर छेत्रीयता का जारोपण, प्रान्तीयता का ओरापण प्राय होता है, और वह अस्वस्थ हे इससे स्थानीय अभिमान भले ही प्रोत्साहित होता हो, पर साहित्य का विस्तार अवरुदूध होता है, योर सूजनात्मक संतार में कुछ ऐसे सकुचित, क्षुद्र, तुन्छ तत्व भा जाते हैं, जो इसके सहज आ्पण को ही क्ीथ कर देते हैं । पान्तीयता साहित्य की सृष्टि की प्रेरक नहीं है, वाधक है 1 भेरी आपत्ति भापा पर आधारित विभाजन पर जो बावश्यकता से बधिक बल दिया जा रहा है, उसके प्रति है, तत्सम्बन्धित परिप्रेक्य के प्रति है। पर वास्तविकता यह है कि भारत में कई भाषाएं हैं और उनके क्षेत्र भी हैं। गौर भाषाओ का एक-दूसरे पर प्रमाव रहा है। भापषार्मी के भिन्न होते हुए भी भारतीय समाज प्राय. सम्पूर्ण भारत में एक-सा ही रहा है--मर्थात्‌ धघर्मे-प्रमावित 1. अत साहित्य के मूल तत्व कभी भी प्रान्तीय न रहे। वे हमेशा भारतीय रहे हैं। भापा प्रान्तीय हो, पर साहित्य--चूंकि समाज से सम्दन्धित है, और सारा भारतीय समाज एक-सा है, इसलिए--अनिवाये रूप से, अविभाज्य रूप से भारतीय है । किसी भी मारतीय भाषा को कृति अनूदित होकर किसी और को सम्पत्ति बन सकती है! उनमे समान गुण हैं, और समान गुण सासानी से खपा लिये जाते हैं। एक साहित्य मे दूसरी भाषाओ के साहित्य को आत्मसातू करने की वित्तक्षण क्षमता होती है । हिन्दीतर प्रदेशों के हिन्दी के साहित्य पर काफी प्रभाव रहे हैं। हिन्दी का भी अन्य भाषाओ पर प्रभाव है। “प्रभाव” भी आवश्यक रूप से देन हू। भले ही यह तोले-मापे न जा सकें ; पर ये प्रभाव ही. दिशानिर्णायक होते हैं, साहित्य को मार्ग देते हैं, गति गौर रंग देते हैं । ये प्रभाव ही वस्तुत- देव हैं। केवल देना ही देन नहीं है। दिया तो बहुत कुछ जाता. है, पद * दिया ' जब खपा लिया जाता है, चही ' देन बनता है। वही देन है जितकी अनुपस्पिति अखरे--जिसके बगर लाभान्वित साहित्य विपस्त सगे-जो कलेवर को दृद्घि मात का कारण




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