भारतीय संस्कृति के मूल तत्व | Bhartiya Sanskriti Ke Mul Tatva
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.32 MB
कुल पष्ठ :
199
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. कृष्ण ओझा - Dr. Krishna Ojha
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारतीय सस्कृति विषय, पृष्ठभूमि मूलभूत विशेषताएँ 9
ससार में नहीं तो पूषीं गोला्ध में इतने हो बडे किसो भो अन्य देश से अधिक विभिन्न
हैं।'” (हुक)
सामाजिक विविधता के अन्तर्गत जन भाषा और धर्म का परिगणन किया जाता
है । भारत में मानव जाति के नृदश तत्त्व सम्बन्धी तीन मुख्य भेद पाये जाते हैं-(1) आर्य
(काकेशिया) यथा श्वेतवर्षी, जिसके गोरा व सावला दो भेद हैं, (2) मगोल, किसत या
पीतदर्णों, और, (3) हब्शी ( इधियोपिया) या कृष्णवर्णी, जो अण्डमान ट्रीप में रहते हैं ।
इनके शारीरिक विशेषताओं वाले कई मतभेद हैं । नृवंश पर आश्रित नसल सम्बन्धी
विभिन्नता अपने साथ अनेक प्रकार के पघाओ के भेदो को भी लिए हुए हैं । दिद्वानो ने
भारत की भाषाओं को चार बडे विभागों में विभाजित किया है-(1) मुण्ड-शबर, (2)
'हिब्यती-चीनी, (3) द्राविड और (4) भारोपीष या सस्कृत से निकली भाषाएँ । धर्म के
क्षेत्र में भो भारत मे सबसे अधिक विभिन्नता है । यहा सभी विश्वधर्म पाए जाते हैं ।
विशालतम हिन्दू धर्म के अतिरिक्त यहा इस्लाम, बोद्ध, ईसाई, सिक्ख, जैन, पारसी आदि
चर्म के अनुयायी भी हैं । भारत में मारबोय विकास की सभी अवस्थाओ और स्थितियों
में प्रारम्भिक से लेकर उच्चतम दशा तक के लाग पाए जाते हैं । “यह देश लोक-धर्म, जन
विश्वास, रीति-रिवाज, रहन-यहन, मत-मतात्तरं, भाषा बोलियो-जाठियो और समाज-
सस्थाओ को दृष्टि से पूरा सप्रहालय कहा जा सकता है । पर यह मुर्दा चीजों का और ईंट-
पत्थरों का अजायवपर नहीं, बल्कि प्राणवन्त मानव जाति और आध्यात्मिक-विचारी का,
जो अपने-अपने ढग से विकसित हो रहे हैं महान् कोश हैं ।” ( मुकर्जी )
(6 ) एकदा-भारत में इप्र विभिनता में भी एक मौलिक एकहा समाई हुई है ।
यहाँ के निवासियों ने सस्कृति और सभ्यता मे जो पहले ही उन्नति की, ठसका कारण यह
था कि आरम्भ में हो भारत देश को अपनी मातृभूमि बना सके थे । समस्त देश के लिए
उन्होंने ' भारतवर्ष' यह नाम दिया । पुराणों की परिभाषा के अनुसार, *' भारतवर्ष वह देश
है, जो हिमालय के दक्षिण और समुद्र के उत्तर में है, जहाँ महेन्द्र, मलय, सहा, शुक्तिमान,
ऋश्ष, विश्थ्य और पारियाद ये साठ पर्वत हैं, जहाँ भारत के वशज रहते हैं, जिसके पूर्व में
'किरात और पश्चिम मे यवन बसते हैं और जहीँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद वर्ण के
लोग हैं'' ( विष्णु पुणाण, 2 127 ) । हिन्दुआ को एक देशव्यापी स्तुति में मातृपूमि के
स्वरूप की कल्प और पूजा गगा, यमुना, गोदावररी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी
इन सात मदिया के देश के रूप में की गई है, जा इस समस्त भूखण्ड में फैली हैं-
**गो च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेशस्मिन् सन्रिषि कुर ॥”'
एक अन्य स्तुति में मातृभूमि का स्वरूप बताते हुए उसे अयाध्या, मधुरा, माया
(हथ्द्धार) . काशी, कादो, अवन्तिका और द्वारवठी इन सात पुरियों का देश कहा गया है,
जो भारत के प्रमुख भागो में हैं- दी
** अयोध्या मधुरा माया काशों काची हावन्तिका ।
पुरी द्वारवत्ती चैव सतैता मोक्षदायिका ॥”
हिन्दुओ को चीर्थयात्रा इन द्रार्नाओ की भावना को पुष्ट करती है । इसके
अनुसार प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि दह अपने जोवनकाल में अपने धर्म के इन पढचिद
User Reviews
No Reviews | Add Yours...