भारतीय संस्कृति के विविध परिदृश्य | Bhartiya Sanskriti Ke Vividh Paridrishya

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Bhartiya Sanskriti Ke Vividh Paridrishya by बाबू वृन्दावन दास - Babu Vrandavan Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ख निकट सम्पर्क स्थापित नहीं कर सका था । अपनी सूल के लिये मैं अब नज्जित हूँ । है श्री वृन्दावतदास जी को मंडल के लिये तित्य प्रति दस दस बारह बारह घंटे खर्च करने पड़ते हैं और कोई बैतमिक सहकारी भी इतना परिश्रम ने कर पाता जब १८६३ में मण्डल का सधापतित्व उनके द्वार में आया उस समय तजभारती बन्द पड़ी हुई थी । बृन्दावनदास जी ते अपने संधिमण्डल के सदस्यों से कहा दि. ब्जभारती को वे उन्हें सौंपें तो वे उसकी सम्पादकीय तथा जाथिक व्यवस्था खुद कर लेंगे । उनके साथी राजी हो गये । वृस्दावन दास जी ने बड़ी निष्ठा के साथ क्षपने बचन को सिधाया है और तव से ब्रजभारती बराबर वक्‍त पर ही निकल रही है । मेरा अनुमान है कि अवध्य ही इस प्रयोग में थी बुन्दावन दास जीं को कुछ घाटा सहना पड़ता होगा । आज के युग में जब हमारे साहित्यिक नेता अपसी जेब को कस कर पकड़े रहते हैं और सस्क्तिक कार्यों के लिये एक कानी कौड़ी भी खर्चे नहीं करना चाहते वृन्दावन दास जी का हृष्टान्त सबंधा दुलेभ होगया है यद्यपि वुन्दावन दास जी साठ के आस-पास पहुँच चुके हैं तथापि उनमें युवकों जैसा उत्साह पाया जाता है । साथ ही उनमें दो अत्यन्त दुलंभ गुण भी हैं--एक तो शिप्यत्व की भावना दूसरा प्रत्येक काम को बक्त पर निपटाना । सम्पकं स्थापित करने के लिए मैंने उन्हें दो पते घतला दिये थे दिस्‍्ली के श्री बीरेस्ट्र ल्िपाठी का और वसई-ताजगंज के थी देवी प्रसाद शर्मा दिव्यजी का । वुन्दावनदासजी दोनों के घर जाकर




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