बादलो के घेरे | Badlo Ke Ghere
श्रेणी : उपन्यास / Upnyas-Novel, काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.97 MB
कुल पष्ठ :
183
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मननों अन्दर च दी, तो धाप-ही ब्राप मैं भी साय हो लिया । कम्दल उठा-
कर बडी माँ ने विटिया को लिटाया, वाल ढीते करने-वरते माये को छा घोर
मेरे लिए दुर्मी पाम सींचकर दाहर हो गयी 1
“मननों 1 7
मननों दोली नहीं । दुबली-सी बाँह तनिक-सो भागे की, प्ौर* *फिर एका-
एक कुछ सोचकर पीछे खींच ली 1”
झ्राज जब स्वय भी मननो-सा दन गया हूँ, सो बार श्रपने को न्योछावर
कर उसी झण को लौटा लेना चाहता हूँ । में बुर्मा पर वैठा-बैठा वयों उस चाह
को छू नहीं सका था ? बयों उम हाय को सदला नहीं सका था ? उमड्ते मन
को किसी ने जैमे जकडदर वहीं, उस वुर्मी पर ठहरा लिया या 1
क्या था उम शिमक में * कया था उस किमवनेवाले सन में ? रहा होगा,
यही भय रहा होगा, जो भ्रव सुमने मेरे प्रियजनों को दूर रखता है । उस रात
जब जाने को उठा था, तो ाँखों वा मोह पीछे वाँवता था, मन वा मय धागे
खीचता या भौर जब जल्दी-जल्दी चलवर डाक-वंगले में पहुँच गया, तो लगा
कि मुदत हो गया हूँ, झण-झग जद टने वन्पन से मुक्त हो गया हूँ । उस भ्रभागी
'रात में जो मुक्ति पायी थी, वह मुे कितनी फनी, चाहत्प हूँ, माज एक बार
मननों देखती तो 1
रात-मर ठीव-से सो नहीं पाया । वार-वार नॉंद मे सगता कि मुवाणी में
हूँ। भुवाली में सोया हूँ । वही “पादन्स' का बडी दर्टी खिडियॉवाना वमरा है ।
मननों के पलग पर लेटा हूँ भरौर पास पड़ी दुर्मी पर बेटो-बटी मत्नो भपनी
उन्हीं दो प्राँघो से मुम्े निहारती है | मैं हाय श्रागे ब रता हूँ प्रौर वह थोडा-सा
हमसबर सिर हिसाही हुई बहती है, “नहीं, इसे बम्बल दे नोचे कर लो । भव
इसे कौन छुएगा ?”
मनतो !
मननो कुछ कहती नहीं, हस-भर देती है । रात भर इन दुस्वप्नों में भटवने
के बाद जगा, तो बुग्रा दीस पडों--”कुछ हाथ नहीं लगेगा, रवि ! ”
उस सुबह फिर मैं रुका नहीं, न डाव-वेंगले में, न मुवाली में । दस वे भट्ढे
पर पहुंचा, तो घूप में बुनी-दुमी मुदाली सुक्े भयादनी लगी । एव बार जी को
टटोला--'पाइन्म' नहीं **नहीं* कुछ नहीं” लोट जाय ।
'घर पहुँचकर बुझा मिली 1 कड़ी चेतावनीवाला सिंचार्खियचा चेहरा था ।
भरपूर णुरें, दे्इवर उसे सौल रोके पूरा, “कहां. थे बन्द 7”
“रानीखेत ठक गया था, बुझा ! ”
20 | यादों के घेरे
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