धर्म महासमर भाग - 4 | Dharam Mahasamar Bhag - 4

Dharam Mahasamar Bhag - 4 by नरेन्द्र कोहली - Narendra kohli

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तो इन लोगों का हित कैसे होता ?” “इनका हित तो हम हस्तिनापुर में बैठे भी साध सकते थे।” भीम बोला, *एक सैनिक अभियान में ये सारे चोर और दस्यु समाप्त कर दिए जाते सिंहासन पर बैठे-बैठे कोई राजा प्रजा का हित नहीं साध,सकता मध्यम !” कृष्ण के स्वर में एक असाधारण अनुगूँज थी, “उसके लिए राजा को प्रजा के दुःख-सुख में उसके साध जीना और मरना पड़ता है।” पा अभी भोजन समाप्त ही किया था कि उन्हें समाचार मिला कि महर्षि वेदव्यास पधारे हैं। युधिष्ठिर के मन में उत्साह का ज्वार जैसा उठ आया। उसने किसी से कहा नहीं था, किन्तु उसके मन में बार-बार यह बात कौंध रही थी कि वे लोग सदा के लिए हस्तिनापुर छोड़ आए हैं। शब्दों में किसी ने भी अभिव्यक्त नहीं किया, किन्तु कोई भी स्पष्ट देख सकता था कि राज्य का ही बैंटवारा नहीं हुआ था, परिवार का भी बँटवास हो गया था, और इस बैंटवारे में परिवार के सारे ही वृद्ध-जन दुर्योधन के भाग में आए थे । धृतराष्ट्र और गान्धारी को तो दुर्योधन के पास रहना ही था, किन्तु पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, विदुर काका, कृपाचार्य, पितामह बाहुलीक, सोमदत्त”सब लोग हस्तिनापुर में ही रह रहे थे।”वैसे वे लोग इस बीहड़ वन में आकर करते भी क्या ?”अपने स्नेहवश अथवा युधिष्ठिर के आग्रहवश यदि उनमें से कोई पांडवों के साथ आ ही जाता तो युधिष्ठिर उनके सुख से रहने के लिए कौन-सी सुविधाएँ जुटा सकते थे ? उसके पास था ही क्या ?”पर क्या ये सम्बन्ध प्रेम के नहीं, सुख-सुविधाओं के ही हैं ? जिसके पास सुख-सुविधाएँ नहीं हैं, उसके परिवार का कोई वृद्ध उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं रखेगा ? पांडवों के साथ केवल उनकी माँ आई हैं । इसका अर्थ हुआ कि केवल वे ही उनकी अपनी हैं ।”“विदुर काका के विषय में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता”किन्तु वे भी नहीं आए सहसा युधिष्ठिर सजग हो उठे : वे यह सब क्या सोच रहे हैं ? महर्षि के आने पर उनका स्वागत करने के स्थान पर वे अन्य कुल-वृद्धों के प्रति अपने मन में आक्रोश संचित कर रहे हैं यदि पितामह, आचार्य अथवा विदुर काका स्वयं ही उनके साथ आने का प्रस्ताव रखते तो क्या वे उनके प्रस्ताव का स्वागत करते ?”'नहीं । कदाचित्‌ वे स्वयं ही उन्हें इस विचार से विरत करने का प्रयत्न करते ।”आज प्रातः जब वे लोग यहाँ पहुँचे हैं, तो यह निर्णय करना भी कठिन हो रहा था कि वे इस त्तरधाकथित प्रासाद में वास करें अधवा वन में ही अस्थायी शिविर स्थापित करें । अब तो यह भवन कुछ स्वच्छ लग रहा है, किन्तु प्रातः क्या था इसमें ? मकड़े, छिपकलियाँ, चूहे और चमगादड़ | ऐसे में कुल-वृद्धों को वे कहाँ ठहराते । अपनी माँ के प्रति तो उनका भाव ही कुछ और है। उन्हें वे स्वयं से पृथक्‌ कर देखते ही नहीं | जब से युधिष्ठिर को स्मरण है”माँ उनके साथ ही रही हैं। पर्वतों पर, वन में, हस्तिनापुर के उस पुरातन खंडहर में, वारणावत के शिव-भवन में, हिडिंव वन में. एकचक्रा में ब्राह्मण के घर में, कांपिल्य में कुम्भमकार धघर्म/19




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