मिट्टी के दीए | Meti Ke Diye
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.28 MB
कुल पष्ठ :
153
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१ और तीव्रता से पकड़ रहा था । उसके पास तो सहारा था । लेकिन धनपति की आत्मग्लानि अंततः आत्मक्रांति वन गई। वह दो सहारा नहीं थी । उसे तो छोड़ना जरूरी था। लेकिन स्मरण रहे कि आत्मग्लानि भी अहंकार का ही उल्टा रुप है और इसीलिए वह भी छुटती कठिनाई से ही है। अवसर तो वह सीधी होकर स्वयं ही अहंकार वन जाती है। इसी कारण भोगी योगी दो जाते हैं भर लोभी दानी ऋर करुणावान -- लेकिन वुनियादी रूप से उनकी आत्माओों में कोई क्रांति कभी नहीं होती है वह धनपत्ति एक सद्गुरु के पास गया । उसने चहाँ जाकर कहा मैं अश्यांत हूँ । मैं बर्नि में जल रहा हूँ । मुझे ग्रांति चाहिए । सद्गुरु ने पूछा क्या इतना धन वैभव दक्ति-सामर्थ्य होने पर भी तुम्हें शांति नहीं मिली ? उसने कहा नहीं । मेंने भलीभाँति अनुभव कर लिया धन में शांति नहीं है । सदूगुरु ने तब कहा जाओ और अपना सवंस्व उन्हें लुटा दो जिनसे वह छीना गया है । फिर मेरे पास आायो । दीन और दरिद्र होकर थाओ । धनपति ने वैसा ही किया । बह लौटा तो सद्गुरु ने पूछा अब ? उसने कहा अव आपके अतिरिक्त बौर कोई आधय नहीं है । लेकिन वड़ा अदूभूत था बह सदयुरु । कहें कि पागल ही था । उसने धक्के देकर उस दरिद्र धनपति को झोंपड़े के बाहर निकाल दिया और द्वार वंद कर लिये । अंधेरी रात्रि थी और वियावान जंगल था । उस जंगल में उस झोंपड़े के अतिरिक्त कोई आश्रय भी नहीं था । धनपति ने सोचा था कि वह बहुत वड़ा कार्य करके लौट रहा है । लेकिन यह कैसा स्वागत - यह कंसा व्यवहार ? धन का संग्रह व्यर्थ पाया था । लेकिन धन का त्याग भी व्यर्थ ही हो पाया था | वहू उस रात्रि निराश्रय एक वृक्ष के नीचे सो रहा । उसका अब कोई न सहारा था न साथी न घर । न उसके पास संपदा थी न बाक्ति थी । न संग्रह था न त्याग था । सुबह जागकर उसने पाया कि वह एक अनिर्वंचनीय दांति में डूवा हुआ है। निराश्रय चित्त अनायास ही परमात्मा के आश्रय को पा स्तेत्ता है ।
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