सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली खंड 7 | Sumitranandan Pant Granthavali Part - 7
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.22 MB
कुल पष्ठ :
616
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका
शंखध्वनि' के भ्रन्तगंत मेरी इधर की नवीन रचनाएँ संगृह्ठीत हैं । इन
'रचनासं में सुख्यत: नये जागरण के स्वरों को तथा विश्व जीवन के
भीतर उदय हो रहे नये मनुष्यत्व की रूपरेसाओं को श्रभिव्यक्ति मिली
है । कुछ रचनाग्रों में वतंमान युग जीवन की विसंगतियों के प्रति मेरे
मन की प्रतिक्रियाएं तथा कुछ में मेरे व्यक्तिगत सुख-दुःख की श्रनुगूंजों को
भी वाणी मिली है ।
यह संग्रह मैंने मिश्रवर ई० चेलिशेव को समर्पित किया है । श्रपनी
पुस्तक 'सुमिवानंदन पंत तथा श्राधुनिक हिन्दी कविता में परम्परा
और नवीनता' में उन्होंने मेरे काव्य का जिस श्रान्तरिक सहानुशूति के
साथ गम्भीर श्रालोचनात्मक श्रध्ययन करने का प्रयत्न किया है, उसके
लिए मैं उनके प्रति कृत हू । हिन्दी के प्रगतिशील शालोचकों की तुलना
में उनकी दृष्टि अधिक ब्यापक, गम्भीर तथा सास्प्राही पायी जाती है 1
उन्होंने भारतीय जीवन संघ के सन्दर्भ में प्रगतिशीलता को जिस रूप
में परिभाषित किया हैं श्रौर विदेशी होने पर भी भारतीय जागरण के
आह्वान की जिस प्रकार समभने की चेप्टा की है वह उनकी श्रस्तदूष्टि
तथा प्रतिभा का परिचायक है । यदि वे मेरी नवीन चेतनामुलक सांस्कृतिक
पस्वनाओं का---जिन्हें श्राध्याहिमिक रचनाएँ भी कहां जाता है--यथोचित
सुल्यांकन नहीं कर सके तो मैं इसे उनकी सीमा न कहकर माक्सेंवाद
ही की सीमा वहूँगा, जिससे उनका मूल्यांकन एवं विचारात्मक दृष्टिकोण
अतुप्राणित रहा है, एवं जिस वातावरण में उनके जीवन तथा मन का
निर्माण हुमा है।
सावर्सवाद में चेतना तथा पदार्थ झथदा झान्तर तथा वस्तुगत दृष्टि
पकोणों के सम्बन्ध में वहीं से एक प्रकार का उलभाव पैदा हो जाता है
जहाँ से मावस हीगल के सिर के वल खड़े दर्शन को पैरों के वल खड़ा
करना चाहते हूँ। इससे तब॑ का पश्चिमी श्रादर्शवाद--जो हीगस में
शिखर पर पहुंचा मिलता है--भले ही पेरों के बल खड़ा हो सका हो पर
भारतीय चतन्यमूलक दृष्टिविन्दु में--जो 'पदम्यां पृथ्वी” के श्रनुरूप सदेव
ही पैरों के वल खड़ा रहा है--कोई संद्घान्तिक या व्यावहारिक श्रन्तर
उपस्थित नहीं होता । भारत में जीवन दोध तथा नैतिक-सॉस्क्तिक
म्मान्यताएँं परिस्थितियों के अरघीन न रहकर सेव ही उनसे ऊपर,
चंसप्वनि / ४
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