अध्यात्मसहस्त्री प्रवचन(भाग ७ ) | Adhyatmasahastra Pravachan ( Part - 7)

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Adhyatmasahastry Pravachan ( Part - 7) by खेमचन्द जैन - Khemchand Jainसर्राफ़ मंत्री - Sarraf Mantriसहजानंद शास्त्रमाला - Sahajanand Shastramala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्ध्यात्मसहस्री प्रवचन सप्तम भाग ११ दूसरे पदार्थकी परिणतिसे यह नही हुआ । यह तो समस्त अनन्त अन्य द्रव्योसे श्रव्यन्तं भिन्न है । एक द्रव्यका अनन्त अन्य द्रव्यमे अत्यन्ताभाव है । तो किसीका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी पदार्थमे कैसे पहुंच सकता है ? यह লী परिरणमने वालेकी ही कला है कि वहु कंसा सन्निधान पाकर किस रूप परिणम जाय, न कि यह निमित्तका प्रभाव है कि वह उपादान को किस तरह परिणमा दे । निमित्तनैमित्तिक भाव है, पर निमित्तनैमित्तिक भाषके मध्य परिणमनेकी कला, प्रभाव, ढंग उपादानका है। हाँ वहाँ यह बात अवश्य है कि किस किस प्रकारके पदार्थका निमित्त पाकर उपादान अपना प्रभाव बनाये | तो पदार्थ प्रति क्षण उत्पन्न होता रहता है, अपने स्वरूपसे उत्पन्न होता है व अपने में ही निष्पन्न यह्‌ विलीन तेता है । विलीन होकर बात क्या हई ? पर्याय कहा चली गई ? केसे मिट गई ? इसको किन शब्दोमे बताया है ? जैसे समुद्रमे तरग उठ रही है तो हवाका उसमे निमित्त है। जब हवा न रही, समुद्रक्री तरग विलीन हो गई, मिट गईं तो तरंग कहां गई ? कही समुद्रसे बाहर जाकर भस्म हो गई क्‍या ? श्रथवा समुद्रके भीतर छिपी छिपी श्रव भी वह्‌ तरण बनी हुई है कया ” जो विलीन होती है पर्याय वह न द्रव्यमे मौजूद है, न द्रव्यसे बाहर है और फिर भी उसका अभाव है, ऐसी यह विलीन होनेकी अवस्था भी एक अद्भुत अ्रवस्था है । तो पूवे पर्याय विलीन हुई वह मेरेमे विलीन हुई । मेरे स्वरूपसे विलीन हई, विसी श्रन्य स्वरूपको व्यक्त करती हुई विलीन हुई । और, यह मैं सदा बना ही हुत्ना हु । ऐसा मै अपने आपके चउतुष्टयमे उत्पाद व्यय श्रौव्यह्प हूँ, परसे निराला हूँ। ऐसे साधारण धर्मका बोध होने पर यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि मुझ वस्तुका किसी भी श्रन्य वस्तुके साथ रच भी सम्बवंध नही, रिस्ता नही । घरमे पदा हए, म्राये हुये ये दो चार जीव भी उतने ही निराले है जितने निराले जगतके स्वे अनन्त जीव है। वहाँ यह गुञ्जाइश नही है कि ये तो कुछ कम निराले होंगे, ये कुछ तो मेरे कहलाते हो होगे | तो वाह्ममे मेरा रंच भी कुछ नही है । सर्वे परका चतुष्टय बिल्कुल भिन्‍न है, उनका परिणमन उनके भ्रनुसार है । यहा कषायसे कषाय जुड मिल गई, समान कषाय मालुम हुई कि परस्परमे मित्र श्रौर बन्धु बन गए । जरा भी कपाय विपरीत हुई, एक की कषाय दूसरेकी कषायसे न मिली तो वहां बघुता श्रौर मित्रता नहीं रहती है । तो इस उत्पाद व्यय प्रौव्यके मेको जानने से बहुत सी श्रकु- तताय, भ्रशान्तिया दूर हो जाती हैं । तो प्रारम्भभे ही समझ लीजिये कि यह मैं उत्पाद व्यय श्रौव्यसे गुस्फित हूँ । ; आत्माकी गुणपर्यायमयता--मैं हैं, जो हुँ सो ही हैँ, लेकिन समझने के लिए जब वदसे पर करेंगे तो गुण और पर्थायके द्वारा विश्लेषण करेगे । हूँ में और प्रति समय कोई न कोई मेरा रूप व्यक्त होता है, वही परिणमन है, और, ऐसे परिणमन यहा विदित हो




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